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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कर्मास्रव की दार्शनिक मीमांसा
- डॉ. रमेशचन्द जैन पुद्गल में विपाक करने वाले शरीर और अंगोपाङ्ग नामकर्म की प्रकृति का उदय होने पर मन, वचन और काय से युक्त हो रहे जीव की जो कर्म और नोकर्मों के आगमन की कारण हो रही शक्ति योग है, यह भाव योग कहा जा सकता है। इस भावयोग रूप पुरुषार्थ से आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द हो जाना स्वरूप द्रव्ययोग उपजता है। ग्रहण की जा चुकी या ग्रहण करने योग्य हो रहीं मन, वचन, कायों की वर्गणाओं का अवलम्ब पाकर आत्मा के वह कम्प रूप योग उत्पन्न हुआ अनादि काल से तेरहवें गुणस्थान तक सदा कर्मनोकर्मों का आकर्षण करता रहता है। भावयोग अपरिस्पन्दात्मक है और द्रव्ययोग परिस्पन्दात्मक है। योग आत्मा के निकट ज्ञानावरणादि कर्मों के आस्रव का हेतु है। योग ही जीवों का कर्म से बन्ध होने जाने का प्रधान कारण है। योग नहीं होता तो सभी जीव शुद्ध सिद्धपरमेष्ठी भगवान् हो जाते। सांख्य मत मीमांसा -
सांख्य मतानुयायी कहते हैं कि योग तो प्रधान यानी सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणों की समता स्वरूप प्रकृति का परिणाम है। अतः वह बन्ध का हेतु नहीं हो सकता हैं। जैनाचार्यों का कहना है कि सांख्यों का यह कहना युक्ति रहित है; क्योंकि यह बात सिद्ध है कि बन्ध उभय पदार्थों में स्थित होता है।
प्रश्न - तब तो जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य इन दोनों का परिणाम बन्ध मान लिया जाय।
उत्तर - (किसी तटस्थ विद्वान् का) यह कहना कठिन है; क्योंकि जीव और कर्म के बन्ध हो जाने के कारण उन जीव और कर्म दोनों के परिणाम विशेष कहे हैं।
गोम्मटरसार ग्रन्थ में कहा गया है -
जोगा पयडि पदेसा ठिदि अणुभागा कसअदो होंति।। योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार के कर्तृकर्ममहाधिकार में जीव और पुद्गल के सम्बन्ध के विषय में निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से वर्णन किया है
जीव परिणाम हेदुं म्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि॥