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________________ 24 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) रूप शुभ भावों की प्रवृत्ति सहित शुद्ध उपयोग होता है। अशुभ से निवृत्ति और व्रत-समिति-गुप्ति शुभ में प्रवृत्ति का नाम व्यवहार चारित्र है। शुद्ध उपयोग शुद्धात्मा के आश्रयपूर्वक होता है। अतः शुद्ध उपयोग हेतु शुद्धात्मा की भावना भाना इष्ट है। शुद्धात्मभावना का फल : ध्यान द्वारा शुद्धात्मा की प्राप्ति - जो शुद्ध स्वरूप परमात्मा है, वही शुद्ध स्वरूप मैं हूँ', इस प्रकार बारम्बार भावना करने वाले आत्मा के शुद्ध स्वात्मा में जो लय बनता है, वह अनिवर्चनीय योग या समाधि रूप ध्यान कहलाता है (श्लोक ५७)। शुद्ध स्वात्मा के अनुभव काल में राग-द्वेषादि की कल्लोलें नहीं उठती अन्यथा आत्मदर्शन नहीं हो पाता। इस प्रकार शुद्धात्मा-भावना का फल शुद्धात्मा की प्राप्ति है। शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप परमानन्द में लीन हुआ योगी किसी भी भय को प्राप्त नहीं होता। वह निर्भय हुआ परमानन्द का ही अनुभव करता है (श्लोक ५८)। __ ऐसा योगी परम एकाग्रता को प्राप्त हुआ तथा अशुभ आस्रव को रोकता हुआ और उपार्जित पाप का क्षय करता हुआ, जीवित रहता हुआ भी निर्वृत्त - जीवन्मुक्त है (श्लोक ५९)। जीवन्मुक्त-अवस्था को प्राप्त कराने वाली यह परम-एकाग्रता शुक्लध्यान की एकाग्रता है जिससे चार घातिया कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं। ध्यान की यह एकाग्रता अभिनंदनीय है। ***** B-369, ओ.पी.एम. कालोनी, पोस्ट-अमलाई जिला-शहडोल (म.प्र.) 484 117
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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