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________________ 23 अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 द्वारा दिखाई दे रहा हूँ (श्लोक ४६)। इस प्रकार से अपने आपको ही देखता हुआ मैं परम-एकाग्रता को प्राप्त होता हूँ और संवर-निर्जरा दोनो से प्राप्त होने वाले आनंद को भोगता हूँ - और इस दृष्टि से संवर और निर्जरा रूप मै ही हूँ (श्लोक ४७)। इस प्रकार स्वरूप में लीन योगी अपने में ही अपना दर्शन करता हुआ परम एकाग्रता को प्राप्त होता है, आत्माधीन आनंद को भोगता है। इससे पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा और नवीन कर्मों का आगमन (आस्रव) रुक जाता है और सहज आत्म-विकास सधता है। आत्मानुभवी योगी की सहज विचार परिणति : भेद-विज्ञान द्वारा अविद्या से समत्व की ओर - ___ भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म से रहित शुद्ध-आत्मा का अनुभव करने वाला भव्य जीव विचार करता है कि 'शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से अनन्तानंत चैतन्य शक्ति के चक्र का स्वामी होकर मैं अनादि अविद्या के संस्कार से इन्द्रिय एवं शरीर को अपना स्वरूप मान कर उसकी वृद्धि-हानि में अपनी वृद्धि-हानि मानता रहा (श्लोक ४८-४९)। इसी प्रकार स्व-स्त्री, पुत्रादि के शरीर को अपना मान कर उनके सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझ कर भोगा है (श्लोक ५०)। अब मुझे अपनी भूल का ज्ञान हुआ और अब मैं भेद-विज्ञान से अपने तथा दूसरों के आत्मा को आत्म रूप से तथा देह को देह रूप से जानता हुआ निर्विकार साम्य सुधा का आस्वादन कर रहा हूँ (श्लोक ५१)। आत्मयोगी की इन्द्रियदशा - ___आत्मानुभवी योगी का चित्त वस्तुतत्व के विज्ञान से पूर्ण और वैराग्य से व्याप्त रहता है, तब इन्द्रियों की अनिर्वचनीय दशा हो जाती है। उसकी इन्द्रियाँ न मरी हैं, न जीती हैं, न सोती हैं और न जागती हैं (श्लोक ५२)। जाग्रत रहकर भी वे इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्त नहीं होती और विषय अ-ग्रहण में निद्रा जैसी परवशता का कोई कारण नहीं होता। आत्मयोगी का उपयोग तत्त्व-ज्ञान और वैराग्य के सन्मुख बना रहता है। पुरातन संस्कारों के जाग उठने से चित्त में संकल्प-विकल्प जाग्रत होने पर भी अंतरंग में विषद् ज्ञान रूप शुद्ध उपयोग की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रहेगी और क्या वह कल्पना स्थित स्मृति किसी वस्तु का स्मरण करेगी? अर्थात् नहीं करेगी? (श्लोक ५३)। स्वानुभूति वृद्धि की भावना - आत्मयोगी अपनी स्वानुभूति की वृद्धि की उत्तरोत्तर भावना भाता है और अपने आपको अनुभव करता हुआ राग-द्वेषादि हेय को छोड़कर आदेय, जो निजरूप है, को ग्रहण कर रत्नत्रयात्मक निज भाव का भोक्ता बना रहे, ऐसी भावना करता है (श्लोक ५४)। शुद्धोपयोग कैसे होता है किस क्रम से होता है? शुद्ध-आत्मा सर्वप्रथम अशुभ उपयोग के त्याग सहित श्रुताभ्यास के द्वारा शुभ उपयोग का आश्रय करता है, पश्चात् शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहूँ, ऐसी श्रेष्ठ-निष्ठा, भावना भाता है और उसे धारण करता है (श्लोक ५५)। इस प्रकार अशुभ भावों के त्याग और
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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