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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
जाग्रत होता है जो आत्म साक्षात्कार के लिये सहायक है। अतः इसकी भावना भाना
श्रेष्ठ है। ६. स्व-समर्पण हेतु आत्मा के अद्वैत-सच्चिदानंद स्वरूप की भावना : वस्तु स्वरूप
के प्रति अहं भाव आये बिना आत्म-समर्पण नहीं होता। इसी दृष्टि से स्वात्मा विचार करता है कि 'निश्चय से आत्मा सत्, चित् और आनन्द के साथ अद्वैत रूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ, इस प्रकार निरन्तर अभ्यास से ही मैं अपने निर्मल आत्मा में लीन रहता हूँ (श्लोक ३०)। जो आत्मा को कर्मादिक से सम्बद्ध देखता है वह द्वैत रूप है जबकि जो भव्य-आत्मा अन्य पदार्थों से विभक्त भिन्न अपने को देखता है वह अद्वैत रूप
परमब्रह्म को देखता है। अतः अद्वैत स्वरूप की भावना भाओ। (अ) सत् स्वरूप :
आत्म स्वचतुष्टय रूप द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से प्रतिक्षण ध्रौव्य-उत्पत्ति-व्ययात्मक सत् स्वरूप हैं, सत्तावान है। पर-चतुष्टय की दृष्टि से असत् स्वरूप हैं (श्लोक ३१)। जैसा जगत है वैसा मैं कभी नहीं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा जगत कभी नहीं रहा; क्योंकि कथंचित् सर्व पदार्थों की परस्पर विभिन्नता का अनुभव होता है (श्लोक ३२)। पुद्गल में रूपादि गुण, धर्म द्रव्य में गति सहकारिता, अधर्म द्रव्य में स्थिति सहकारिता, कालद्रव्य में परिमणत्व और आकाश द्रव्य में, अवगाहनत्व गुण हैं। सर्वद्रव्यों की अर्थ पर्याय सूक्ष्म और प्रतिक्षण नाशवान है (श्लोक ३८)। जीव और पुद्गल की व्यंजन पर्याय वचन गोचर, स्थिर और मूर्तिक है। प्रत्येक द्रव्य अर्थ-व्यंजन पर्यायमय हैं और वे पर्यायें द्रव्यमय हैं (श्लोक ३९)। (ब) चित् स्वरूप : ___आत्मा ने अनादिकाल से अपने चैतन्य स्वरूप को जाना है, आज भी जान रहा है और अनन्तकाल तक अन्य किसी प्रकार से जानता रहेगा। जानने वाला ध्रुव चेतन द्रव्य मैं हूँ (श्लोक ३३)। प्रत्येक द्रव्य पूर्व पर्याय में नष्ट होता हुआ वर्तमान पर्याय में उत्पन्न होता हुआ सत्रूप से सदा स्थिर रहता हुआ ‘यह वही है' इस प्रकार ज्ञान में लक्षित होता है उसी प्रकार सारा द्रव्य समूह त्रि-गुणात्म्क अनुभव किया जाता है। मैं भी एक चेतन द्रव्य हूँ अतः अनादि संतति से उसी प्रकार अपनी चेतन पर्यायों के द्वारा परिवर्तित हो रहा हूँ और सदा से चेतनामय बना हुआ हूँ (श्लोक ३४-३५)। द्रव्य गुण-पर्यायवान हैं। जो सहभावी हैं वे गुण हैं और जो क्रमभावी हैं वे पर्याय हैं। जीवात्मा असाधारण चैतन्य गुण हैं जो जीव के साथ सदा रहता है
और कभी उससे अलग नहीं हो सकता (श्लोक ३६)। स्वात्मा यह भावना भाता है कि जिस प्रकार मुक्ताहार में हार-मोती-शुक्लता पृथक्-पृथक् होते हुए भी प्रतीति में सभी हार गए हैं उसी प्रकार आत्म द्रव्य में 'मैं चेतन हूँ, मुझमें चैतन्य हैं और चेतन-पर्यायों में चैतन्य गुण रहता है', इस प्रकार मैं आत्म द्रव्य में तन्मय हो रहा हूँ, आत्म द्रव्य इनके साथ तन्यम हो रहा है। ऐसा प्रतीत-भावना निरन्तर बनी रहे (श्लोक ४०)।