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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 तद्रूप विकार को प्राप्त होता है, वह नोकर्म है ( श्लोक ६३) । 'नो' शब्द अल्प, लघु या किंचित अर्थ का सूचक है। इससे ममत्व भाव विसर्जित होता है । ४. हेय-उपादेय विवेक भावना : सिद्धि अर्थात् स्वात्मोपलब्धि के लिये हेय - उपादेय, सत-असत का ज्ञान और तदनुसार भावना अपेक्षित है । व्यवहारनय की अपेक्षा बाह्य विषयक मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हेय हैं, असत है और सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र उपादेय (ग्राह्य) हैं और सत हैं। निश्चयनय की दृष्टि से मिथ्यादर्शनादिक हेय ओर असत् हैं तथा अध्यात्म विषयक सम्यग्दर्शनादिक उपादेय हैं, जो कि सत् हैं (श्लोक ६५) । परमशुद्ध निश्चयनय से मेरे लिए न कुछ हेय है और न कुछ उपादेय (ग्राह्य) है। मुझे तो स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि चाहिये, चाहे वह यत्नसाध्य हो या अयत्नसाध्य, उपाय करने से मिले या बिना उपाय के मिले (श्लोक ६५) । जो निष्ठात्मा-स्वात्मस्थित कृत-कृत्य हो गया है उसके लिए बाह्य अभ्यंतर त्याग-ग्रहण का प्रश्न ही नहीं उठता। भवितव्यता आधारित अहंकार - विसर्जन की भावना : जीवन में अहंकार और ममकार के संकल्प-विकल्प दारुण आकुलता के निमित्त बनते हैं। इनका विसर्जन भगवती भवितव्यता का आश्रय लेने से होता है । कर्तृत्व के अहंकार के त्याग हेतु कहा है कि 'यदि सद्गुरु के उपदेश से जिनशासन के रहस्य को आपने ठीक निश्चित किया है, समझा है - तो 'मैं करता हूँ' इस अहंकार पूर्ण कर्तृत्व की भावना को छोड़ो और भगवती- भवितव्यता का आश्रय ग्रहण करो (श्लोक ६६) । कोई भी कार्य अंतरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त, नियति (काललब्धि) पुरुषार्थ और भवितव्यता (होनहार ) इन पाँच समवायपूर्वक होता है। अतः कर्तृत्व के अहंकार के विसर्जन हेतु पुरुषार्थपूर्वक कार्य करना इष्ट हैं किन्तु फल की एषणा (अभिलाषा) भवितव्यता पर छोड़ना चाहिये। इसीलिये जैन आगम में स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में भवितव्यता को अलंध्य-शक्ति कहा है जिसे यहाँ ‘भगवती' शब्द से सम्बोधित किया है। स्मरणीय है कि यहाँ कार्य में कर्तृत्व के अहंकार के त्याग की बात कही है न कि कार्य के त्यागने की। बिना कार्य के भवितव्यता का लक्षण ही नहीं बनता। अतः पद की भूमिकानुसार कार्य करना अपेक्षित है। निष्क्रियता का आश्रय भवितव्यता का उपहास है। ܨܳ 19 श्री पं जुगलकिशोर मुख्तार, युगवीर ने अध्यात्म - रहस्य हिन्दी व्याख्या में स्पष्ट किया है कि "भगवान सर्वज्ञ के ज्ञान में जो कार्य जिस समय, जहाँ पर, जिसके द्वारा, जिस प्रकार से होना झलका है वह उसी समय, वहीं पर, उसी के द्वारा और उसी प्रकार से सम्पन्न होगा, इस भविष्य - विषयक कथन से भवितव्यता के उक्त आशय में कोई अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञान में उस कार्य के साथ उसका कारण-कलाप भी झलका है, सर्वथा नियतिवाद अथवा निर्हेतु की भवितव्यता, जोकि असम्भाव्य है, उस कथन का विषय ही नहीं है । सर्वज्ञ का ज्ञान ज्ञेयाकार है न कि ज्ञेय ज्ञानाकार (पृष्ठ ८३-८४)। भगवती - भवितव्यता के रहस्य को समझने से चित्त में समता-भाव
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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