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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
कर्मबंधरूप संसार दुःख का कारण : अविद्या
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प्रेम (तीन वेदरूप परिणति), रति, माया, लोभ और हास्य यह पाँच (वेद सहित सात ) राग के भेद हैं। क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा यह छः भेद द्वेष हैं । दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्व सहित राग ही मोह कहलाता है। राग-द्वेष-मोह बंध का कारण होने से मुमुक्षुओं द्वारा उपेक्षणीय होने पर भी अज्ञानी जीव कर्मों से प्रेरित होकर 'यह मेरा हित है' या 'यह मेरा अहित है' ऐसा मानता हुआ पदार्थों में राग या द्वेष करता है और कर्म-बंध से पीड़ित होता है (श्लोक २८)। मोह के कारण वह ऐसा मानता है कि सुगति की प्राप्ति से इन्द्रिय-विषयों का बारम्बार सुख और दुर्गति से इन्द्रिय-विषयों की अप्राप्ति रूप दुख होता है। उसकी यह मान्यता अविद्या रूप है और पाप का बीज है (श्लोक २२ ) । इस अविद्या का छेदन सम्यग्ज्ञान एवं उपेक्षारूप विद्या से शक्य हैं जिसका वर्णन आगे किया है।
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उत्तम सुख (मोक्ष) का मार्ग : रत्नत्रय
रत्नत्रय उत्तम सुख (मोक्ष) का मार्ग है । रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप शुद्ध-स्वात्मा (अंतरात्मा) ही यर्थाथतः मोक्षमार्ग है। अतः मुमुक्षुओं द्वारा वही पृच्छनीय, अभिलाषणीय और दर्शनीय है (श्लोक १४) । अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है।
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शुद्ध चिदानन्दमय स्वात्मा के प्रति तद्रुप प्रतीति, अनुभूति और स्थिति में अभिमुखता ही क्रमशः गौण (व्यवहार) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है और उस प्रतीति, अनुभूति तथा स्थिति में उपयोग की प्रवृत्ति मुख्य (निश्चय) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है (श्लोक १५) । शुद्धस्वात्मा की प्रतीति दर्शन, अनुभूतिज्ञान और स्थिति चारित्र है। इनकी अभिमुखता व्यवहार रत्नत्रय है और उपयुक्त अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति निश्चय रत्नत्रय है।
निश्चय रत्नत्रय की महत्ता -
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रिरत्न को स्वात्मा की बुद्धि में धारण-श्रद्धान कर जब जीव शुद्ध-स्वात्मा का इस तरह संवेदन (अनुभव) करता है कि संवेद्यमान (अनुभव में आने वाली) स्वात्मा में स्वयं में लीन हो जाता है तभी त्रिरत्नमय गुणों का उच्च विकास होता है (श्लोक १६)। इसे ही ज्ञानानुभूति कहते हैं।
व्यवहार - निश्चय सम्यग्दर्शन
अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप स्वभाव से भिन्न आत्मा की छः द्रव्यों तथा सात- तत्वों के प्रति अभिरुचि व्यवहार सम्यग्दर्शन है। अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप स्वभाव की ओर प्रवृत्त आत्माभिमुखी रुचि का नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है (श्लोक ६४) ।
व्यवहार - निश्चय सम्यग्ज्ञान : (सविकल्प और निर्विकल्प ) -
पर-पदार्थों के ग्रहण को गौण कर निर्विकल्प स्वसंवेदन को निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं। पर-पदार्थों के ग्रहण रूप सविकल्प ज्ञान को व्यवहार-सम्यग्ज्ञान कहते हैं। भेद विशेष तथा पर्याय को विकल्प कहते हैं, जो इनसे सहित हैं वह सविकल्प और जो इनसे रहित हैं वह निर्विकल्प कहा जाता है (श्लोक ६८) । जो ज्ञान आत्मा से भिन्न पर-पदार्थ से संसर्ग को प्राप्त हो रहा हो तथा वह किसी शब्द समूह का विषय बना हुआ हो, तभी सविकल्प कहलाता है (श्लोक ६९) ।