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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
मार्ग (पदवी) है और जिसमें लीन होना मुक्ति है, ऐसा वह परमब्रह्म रूप सर्वज्ञ-सूर्य मेरे हृदय में सदा प्रकाशित हो (श्लोक ७२) । केवलज्ञानमय सर्वज्ञ ही परमप्रकाश रूप परब्रह्म है। योगी की चार सिद्धियों (सोपानों) का स्वरूप
१. श्रुति - श्रुत : जिनेन्द्र देव द्वारा उपदेशित ऐसी गुरुवाणी जो प्रथमतः ज्ञात एवं उपदिष्ट-ध्येय को अर्थात् ध्यान के विषय भूत शुद्धात्मा को धर्म्यध्यान तथा शुक्ल ध्यान में दृष्ट (प्रत्यक्ष) और इष्ट (आगम) के अविरोध रूप आयोजित एवं व्यवस्थित करती है उसका नाम श्रुति है (श्लोक ६) । ऐसी धर्म देशना जो स्वात्मा को प्रशस्त ध्यान की ओर लगाकर शुद्धात्मा-ध्येय को प्राप्त कराने की दोष रहित विधि है, वह श्रुति है । 'एकाग्रचिंता निरोधोध्यानं' - एकाग्र में चिंता निरोध को ध्यान कहा है। शुद्धात्मा में चित्तकृति के
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नियंत्रण एवं चिन्तान्तर के अभाव को ध्यान कहते हैं, जो स्व-संवित्तिमय होता है। २. मति - बुद्धि : गुरुवाणी से प्राप्त श्रुति के द्वारा सम्यक रूप से निरूपित शुद्ध-स्वात्मा जिस मति या बुद्धि से युक्तिपूर्वक नय प्रमाण द्वारा सिद्ध किया जाता है - अध्यात्म शास्त्र में मति कही जाती है (श्लोक - ७) । जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसको उसी रूप में देखती हुई धी (मति) जो सदा आत्माभिमुख होती है वह बुद्धि के रूप ग्राह्य है; तब हे बन्धु उस बुद्धि के आत्म-सम्बन्ध को समझो (श्लोक १७)। ऐसी स्व-पर प्रकाशित बुद्धि का नाम सम्यग्ज्ञान है।
३. ध्यान रूप परिणत बुद्धि - ध्याति :- जो बुद्धि प्रवाह रूप से शुद्धात्मा में स्थिर वर्तती है - अपने शुद्धात्मा का अनुभव करती है - और शुद्धात्मा से भिन्न के ज्ञान का स्पर्श नहीं करती उस बुद्धि (ज्ञान की पर्याय) को ध्याति कहते हैं (श्लोक ८ ) । ध्यान रूप परिणत तथा ध्येय को समर्पित बुद्धि ही ध्याती कहलाती है।
४. दृष्टि (दिव्य दृष्टि) : जिसके द्वारा रागादि विकल्पों से रहित ज्ञान शरीरी स्वात्मा अपने शुद्ध स्वरूप में दिखाई दे और जिस विशिष्ट भावना के बल पर सम्पूर्ण श्रुतज्ञान स्पष्टतः अपने में प्रत्यक्ष रूप से प्रतिभासित होता है - वह अध्यात्म-योग-विद्या में दृष्टि-दिव्यदृष्टि कही जाती है (श्लोक ९) । अथवा जो दर्शन - ज्ञान लक्षण से आत्म-लक्ष्य को अच्छी तरह अनुभव करे - जाने वह संवित्ति 'दृष्टि' कहलाती है (श्लोक १०)। शुद्ध स्वात्मा का साक्षात्कार कराने वाली वह दृष्टि समस्त दुःखदायी विकल्पों को भस्म करती है, वही परमब्रह्य रूप है और योगीजनों द्वारा उपादेय होकर पूज्य - प्रार्थनीय है (श्लोक ११) ।
श्रुताभ्यास का उद्देश्य : दिव्यदृष्टि एवं शुद्धोपयोग की प्राप्ति -
बुधजनों द्वारा श्रुतसागर (शास्त्राभ्यास) के मंथन का उद्देश्य या संवित्ति की प्राप्ति है जिससे अमृत रूप मोक्ष प्राप्त होता है; अन्य सब तो मनीषियों का बुद्धि कौशल निःसार है (श्लोक १२) । श्रुताभ्यास के द्वारा शुभ - उपयोग का आश्रय करता हुआ शुद्ध-स्वात्मा शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहने की भावना एवं श्रेष्ठ-निष्ठा धारण करता है (श्लोक-५५)। इसी कारण से स्वाध्याय को परम तप कहा है।