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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
15 अनुसार कर्मजनित शारीरिक दुःख-सुख में अपनत्व रूप अविद्या का छेदन भेद-विज्ञान जन्य सम्यग्ज्ञान एवं उपेक्षा रूप विद्या से होता है। इसका प्रारंभ श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि इन चार सोपानों सहित आत्मानुभूति एवं शुद्ध उपयोग से होता है। शुद्ध उपयोग का साधक श्रुताभ्यास, शुद्धात्मा एवं भगवती भवितव्यता की भावना है। आपने रत्नत्रयात्मक शुद्ध-स्वात्मा को ही यथार्थ मोक्षमार्ग स्वीकार कर व्यवहार एवं निश्चय दोनों को कल्याणकारी घोषित किया है। मंगलाचरण : भगवान् महावीर एवं गौतम गणधर की वंदना - ___ जो भक्तियोग में अनुरक्त सुपात्र निकट भव्यों को अपना पद (सिद्धत्व) प्रदान करते हैं अर्थात् जिनकी सच्ची-सविवेक-भावपूर्ण भक्ति से भव्यप्राणी उन जैसे ही हो जाते हैं, उन ज्ञानलक्ष्मी के धारक श्री भगवान महावीर और श्री गौतम गणधर को नमस्कार हो (श्लोक १)। यह आराध्य से आराधक होने सूचक श्लोक है। पुनश्च उन सद्गुरुओं को नमस्कार है जिनके वचन रूपी दीपक से प्रकाशित (योग) मार्ग पर आरूढ़ योगी-ध्यानीमोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करने में समर्थ होता है (श्लोक २)। सद्गुरु दो प्रकार के होते हैं - पहला व्यवहार-सद्गुरु जिसकी वाणी के निमित्त से योगाभ्यासी को शुद्धात्मा के साक्षात्कार की दृष्टि प्राप्त होती है, और दूसरा - निश्चय-सद्गुरु, 'आत्मैव गुरुरात्मनः' अर्थात् आत्मा ही आत्मा का सद् गुरु हैं जिसका अंतरनाद हो और सुनाई पड़े। अंतरात्मा की आवाज ही सन्मार्ग-दर्शक है (श्लोक ३)। पारगामी योगी का स्वरूप -
जिसके शुद्धस्वात्मा में निजात्मा की राग-द्वेष-मोह रहित अवस्था में- सद्गुरु के प्रसाद से श्रति, मति, ध्याति और दृष्टि - ये चार शक्तियाँ क्रमशः सिद्ध हो जाती हैं, वह योगी योग का पारगामी होता है (श्लोक ३)। इस प्रकार आत्म साक्षात्कार करने वाला योगी और उसकी दृष्टि देने वाला गुरु ही सद्गुरु हैं। श्री पं. आशाधरजी ने आत्मा के तीन भेद किये है : बहिरात्मा स्वात्मा, शुद्ध स्वात्मा अन्तरात्मा शुद्ध स्वात्मा, और परब्रह्म परमात्मा। बहिरात्मा स्वात्मा का स्वरूप -
जो आत्मा निरंतर हृदय-कमल के मध्य में- उसकी कर्णिका में - अहं शब्द के वाच्य रूप से - 'मैं' के भाव को लिए हुए पशुओं, मूढ़ों तक को स्वसंवेदन (स्वानुभूति) से ज्ञानियों को स्पष्ट प्रतिभासित होता है, वह स्वात्मा है (श्लोक-४)। पर्याय की दृष्टि से स्वात्मा के शुद्ध और अशुद्ध दो भेद हो जाते हैं। अंतरात्मा (शुद्ध स्वात्मा) का स्वरूप - __ स्वात्मा ही जब किसी से राग-द्वेष-मोह नहीं करता हुआ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणत होता है, शुद्ध-स्वात्मा कहलाता है (श्लोक-५)। परमात्मा (परब्रह्म) का स्वरूप -
जो निरन्तर आनन्दमय-चैतन्य रूप से प्रकाशित रहता है, जिसको योगी जन ध्याते हैं, जिसके द्वारा यह विश्व आत्म विकास की प्रेरणा पाता है, जिसे इन्द्रों का समूह नमस्कार करता है, जिसके जगत की विचित्रता व्यवस्थित होती है, जिसका हार्दिक श्रद्धान आत्म-विकास का