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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
आरमीनिया के निवासियों के रेक्षेभ निश्चय ही आदि तीर्थकर ऋषभदेव थे।१८
कुछ इतिहाकारों के अनुसार सीरिया का पूर्व-नाम श्रीऋषभ (सी-श्री, रिया-ऋषभ) के नाम पर रखा गया था। वर्तमान में उसके एक नगर का नाम राषाफा है, जो स्थानीय जलवायु के प्रभाव से ऋषभ का ही परिवर्तित नाम है।९
पूर्वकालीन सोवियत संघ के आरमेनिया में रेशावानी नाम का एक नगर तथा बेविलोन का एक नगर इसवेकजूर भी ऋषभ के परिवर्तित नाम है।२० __ फिनीशियनों के अतिरिक्त अकेडिया, सुमेरिया और मेसोपोटामिया के भी सिन्धु नदी के घाट-प्रदेश से सांस्कृतिक और व्यापारिक सम्बन्ध थे और वहाँ के व्यापारी ऋषभ के कृतित्व एवं व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके सर्वोदयी सिद्धान्तों को अपने-अपने देशों में प्रचारार्थ लेते गये थे।२१ तिब्बत, भूटान, नेपाल आदि में श्रमण-संस्कृति -
उक्त देशों तथा पार्श्ववर्ती क्षेत्रों में श्रमण-संस्कृति के यत्र-तत्र प्रचुर मात्रा में अवशेष मिलते हैं। उनसे स्पष्ट होता है कि पुराकाल में वहाँ प्रचुर मात्रा में जैनधर्मानुयायी निवास करते रहें और उन्होंने वहाँ जैन-मंदिर, जैन-तीर्थ एवं तीर्थकर-मूर्तियों के निर्माण कराए थे।
हिन्दी विश्व कोश (तृतीय खण्ड, पृ.१२८) के अनुसार रूसी पर्यटक नोटोविच को तिब्बत के हिमिन-मठ में पाली-(प्राकृत) भाषा की एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई थी, जिसमें लिखा था कि ईसा ने भारत तथा भोट (तिब्बत) देश जाकर वहाँ अज्ञातवास किया था तथा वहाँ उन्होंने जैन-साधुओं के साथ साक्षात्कार भी किया था।
उक्त पाण्डुलिपि के अनुसार भोट (तिब्बत) देश में भगवान् महावीर का विहार हुआ था तथा वहाँ के निवासी डिमरी एवं डिंगरी जाति के लोग दिगम्बर जैन थे। डिमरी एवं डिंगरी दिगम्बर शब्द का ही रूपान्तरित रूप है। वहाँ जैन पुरातात्त्विक-सामग्री पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती है।
पुराविदों के अनुसार नेपाल सहस्राब्दियों पूर्व से ही श्रमण-संस्कृति का गढ़ था। वहाँ (नेपाल) के राष्ट्रिय-अभिलेखागार में अनेक प्राचीन-ग्रन्थ सुरक्षित हैं, जिनमें अर्धमागधी-आगम के “प्रश्न व्याकरण सूत्र" (पण्हवागरण) की प्राचीन पाण्डुलिपि भी सुरक्षित है।
नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के पास बागमती-नदी के किनारे पाटन के शंखमूल नामक स्थान से उत्खनन में लगभ १४०० चौदह सौस वर्ष प्राचीन भगवान चन्द्रप्रभ तीर्थकर की कायोत्सर्ग-मुद्रा वाली एक मूर्ति उपलब्ध हुई है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिये वहाँ एक विशाल जैन मंदिर का निर्माण कराया जा रहा है। प्राप्त सूचना के अनुसार वर्तमान में वहाँ लगभग ५०० जैन-परिवार निवास कर रहे हैं।
भूटान निवासी जैन ब्रह्मचारी लामचीदास ने सन् १७७१ में अपनी कैलाश-पर्वत की पद-यात्रा के प्रसंग में चीन, तिब्बत, तातार, कोरिया-चीन, महाचीन, खासचीन, को-चीन