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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 श्रीलंका में श्रमण-संस्कृति - प्राचीन काल में श्रीलंका भारत का ही एक अंग रहा था। इसी कारण वह भी श्रमण-संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा था। वहाँ के उत्खनन में जैन-संस्कृति के अनेक अवशेष, स्मारक तथा तीर्थकरों की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। विक्रम की १४वीं सदी में जैनाचार्य जिनप्रभ-सूरि ने अपने चतुरसीति (-८४) महातीर्थ नामक कल्प में वहाँ के (१६वें तीर्थकर) - भगवान शान्तिनाथ के महातीर्थ का उल्लेख किया है। यथा - ......श्रीलंकाया, पाताला - लंकायां त्रिकूटगिरौ श्रीशान्तिनाथः१३ ...। इसी प्रसंग में उन्होंने क्रौंच-द्वीप (वर्तमान समरकन्द बुखारा-नगर) तथा हंसद्वीप के जैन महातीर्थों के भी उल्लेख किये हैं। हंसद्वीप में पांचवें तीर्थकर सुमतिनाथ के चरण-बिम्बों की स्थापना की भी चर्चा की गई है। प्रो. ए. सी. सेन ने अपने ग्रन्थ (-On the Indian Sect of Jains) में लिखा है कि श्रीलंका के राजा पाण्डुकाभय (ई.पू. तीसरी सदी) ने वहाँ एक जैन-मंदिर तथा निर्ग्रन्थों (जैन-साधुओं) के लिए एक उपाश्रय (उदासीनाश्रम) का निर्माण कराया था। यथा - The Ruling monarch pandukabhaya of cylon (Third century B.C.) builtA ViharAnd monastery for the Nirgranthas. मंगोलिया में श्रमण-संस्कृति - मंगोलिया अपने चतुर्दिक फैले देशों के समान ही श्रमण-संस्कृति का प्रभावक केन्द्र था। एक जिज्ञासु भारतीय पुराविद् ने अपनी यात्रा के अनुभव मुम्बई समाचार (-गुजराती) पत्र दिनांक ०४/०८/१९३४ के अंक में इस प्रकार प्रकाशित कराए थे। - “आज मंगोलिया - देश में अनेक खण्डित जैन-मूर्तियाँ और जैन मंदिरों के तोरण-द्वार भूगर्भ से निकले हैं। कुछ विद्वानों ने मंगोलिया का अपरनाम मंगलावती भी बतलाया है। ऋषभदेव एक ऐतिहासिक क्रांतिकारी नाम - विश्व के सामाजिक इतिहास का अवलोकन करने से यह आश्चर्यजनक तथ्य सम्मुख आता है कि श्रमण-संस्कृति के जनक प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव (अथवा वृषभदेव अथवा आदिनाथ या आदि-तीर्थकर) का व्यक्तित्व एवं कृतित्व लक्ष-लक्षाब्दियों तक विश्वव्यापी रहा है। उनके नामोच्चारण में विदेशों के स्थानीय जलवायु के प्रभावों के कारण भले ही कुछ परिवर्तन आया हो, किन्तु थे वे ऋषभदेव ही५। मेडिटरेरियन वासियों द्वारा वे रेषेभ, रेक्षेभ, अपोलो तथा बैल (ऋषभदेव का चिन्ह्) भगवान् के नाम से एक आराध्य-देव के रूप में पूजित हैं। रेक्षेभ से उनका तात्पर्य नाभि (ऋषभदेव के पिता) और मरुदेवी (ऋषभदेव की माता) के पुत्र ऋषभदेव ही था और - चाल्डियन देवता- नाबू को नाभि (ऋषभदेव के पिता) तथा मुरी या मुरु ही मरुदेवी (ऋषभदेव की माता) स्वीकार किये गये हैं।१७
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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