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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 और गहन-वनों में उन दिनों में अगणित भारतीय जैन-साधु वर्तमान थे। वे साधु वस्त्रों तक का परित्याग किये हुए थे।" उक्त मूर- साहब आगे लिखते हैं कि ......... इन जैन साधुओं का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों पर विशेष रूप से पड़ा। उनके इस प्रभाव के कारण कुछ यहूदियों की एक विशेष जाति बन गई थी, जो “एस्सिनी” - जाति के नाम से प्रसिद्ध हुई और इन्हीं एस्सिनी-जाति के लोगों ने यहूदी-धर्म के क्रियाकाण्डों के पालन का परित्याग कर दिया। वे नगरों या ग्रामों से दूर एकान्त जंगलों या पहाड़ों पर घास-फूस की कुटी बनाकर उनमें अपनी साधना करने लगे थे। वे जैन-मुनियों के समान ही अहिंसा को अपना विशेष-धर्म समझते हुए मांसाहार के सर्वथा त्यागी हो गये थे। वे कठोर संयमी-जीवन व्यतीत करते थे तथा निष्परिग्रही रहते हुए रोगियों एवं असहाय दुर्बलों की निस्वार्थ भाव से सेवा किया करते थे। मिश्र-देश में ऐसे साधुओं को “थेरापूते (स्थविर-पुत्र) कहा जाता था, जिसका अर्थ होता है स्थितप्रज्ञ मौनी-साधु। सियाहत-नाम-ए-नासिर नामके एक लेखक ने लिखा है कि इस्लाम-धर्म के कलन्दरी-तबके (सम्प्रदाय) पर जैनधर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। इन कलन्दरों की जमात (जाति) परिव्राजकों (जैन साधुओं) की ही जमात (जाति अथवा संघ या समुदाय) थी। उक्त कलन्दरों की विशेषता यह थी कि कोई भी कलन्दर किसी एक घर में दो रात से अधिक नहीं ठहरता था। वे लोग इन पांच नियमों को कठोरता के साथ पालन करते थे - (१) अहिंसा, (२) साधुता, (३) शुद्धता, (४) सत्यता और (५) अपरिग्रही-वृत्ति। उनकी अहिंसक-वृत्ति के विषय में एक कथानक विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ। तदनुसार एक बार दो कलन्दर-साधु यात्रा करते हुए बगदाद (इराक) पहुँचे। उनके सम्मुख एक शुतुर्मुर्ग ने एक गृहस्वामिनी का बहुमूल्य हीरों का हार निगल लिया। इस घटना को उन कलन्दरों के अतिरिक्त अन्य किसी ने देखा नहीं था। किन्तु वे अनजान बन गये। अतः उस (हार) की गहन खोज की जाने लगी। नगर-कोतवाल को उस (हार) के गुम जाने की सूचना दी गई। उस कोतवाल को उक्त दोनों कलन्दर-साधुओं पर उस चोरी का सन्देह हो गया। उन कलन्दरों ने भी उस मूक पक्षी-शुतुर्मुर्ग की हत्या करना या कराना धर्म-विरुद्ध समझकर उस तथ्य को छिपा लिया। फलतः कोतवाल ने उन दोनों कलन्दरों पर ही संदेह व्यक्त कर उनकी भयंकर पिटाई कर उन्हें कठोर सजा दी, जिसे उन्होंने सहन करके भी उसका रहस्य-भेदन नहीं किया। अहिंसा का ऐसा आदर्श उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। सुप्रसिद्ध इतिहासकार पं. विश्वम्भरनाथ पाण्डे के अनुसार सालेह-अब्दुल-कुद्स भी एक अहिंसावादी एवं अपरिग्राही परिव्राजक जैन-मुनि था, जिसे उसके सुधारवादी क्रांतिकारी विचारों के कारण ही कट्टरपंथियों द्वारा सन् ७८३ ई. में फाँसी की सजा दे दी गई थी।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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