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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 रीति से यह विश्वास कर सकते हैं कि जैनधर्म, अत्यन्त प्राचीन काल से उन साधुओं के द्वारा चीन से कास्पियाना तक उपदेशित होता था। वह धर्म ओक्सियाना और हिमालय के उत्तर तक वर्धमान-महावीर से २००० (दो हजार) वर्ष पूर्व प्रचारित हो चुका था।।
प्राप्त संदर्भो के अनुसार टर्की (तुर्कीस्तान) के इस्तम्बोल नगर से लगभग ६५७ कोस की दूरी पर स्थित तारातम्बोल नाम के नगर में १७वीं सदी के एक-एक विशाल जैन मंदिर एवं जैन-उपाश्रय के अवशेष मिले हैं। यह भी पता लगा है कि वहाँ सहस्रों की संख्या में जैन-धर्मानुयायी निवास करते थे। वहाँ उदयप्रभ सूरि नाम के जैनाचार्य अपने संघ सहित यत्र-तत्र जैनधर्म का प्रचार करते थे।
समय-समय पर वहाँ अनेक देशों के जैन-यात्री आया करते थे। सम्राट शाहजहाँ के शासन-काल में सन् १६२६ ई. में मुल्तान (पंजाब, वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित) का एक जैन-यात्री, जिसका नाम ठाकुर बुलाकीदास था, वहाँ की यात्रा करके लौटा था, जिसने राजस्थानी भाषा में अपनी यात्रा के विस्तृत संस्मरण लिखे थे। उसके अनुसार - .... तिहाँ टर्की (तुर्किस्तान) में इस्तम्बोल नगर बसै छै। तिहाँ थी ५०० कोस बब्बरकोट छ। तिहाँ थी ७० कोस तारातम्बोल छै। पच्छिम-दिस समिंदर कांठी नौड़ी छै। तठे जैन-पडासाद (प्रासाद-मन्दिर), पौसधसाल (उपाश्रय), सुतपद (श्रुतपद-शास्त्र-भण्डार), अनेक मंडन माहैं प्रथाव (विस्तार) छै। श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी अनेक मंडन (भवन) माहै छै। तिहाँ उदयप्रभसूरि युगप्रधान जाति (आचार्य) छ। त? सब प्रजा-राजा जैन छै।”
(इस यात्रा-विवरण की पाण्डुलिपि दिल्ली के रूपनगर स्थित श्वेताम्बर जैन मंदिर के शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित है। (पाण्डुलिपि प्रति सं. ए५४/१४, पृ.१४२) गन्धार-देश में श्रमण-संस्कृति -
वर्तमानकालीन अफगानिस्तान प्राचीनकाल मेंगान्धार-देश के अंतर्गत आता था।अफगानिस्तान का अपरनाम आश्वकायन भी मिलता है। यहाँ पर १७५ फीट खड्गासन आदि-तीर्थकर ऋषभदेव की मूर्ति उपलब्ध हुई है, जो पर्वत-शिला पर तराशी गई थी। उसके मस्तक पर तीन छत्र भी उत्कीर्णित है। इसी मूर्ति के आसपास अन्य २३ तीर्थकर-मूर्तियाँ भी शिलांकित हैं, उनके दर्शनार्थ विशिष्ट अवसरों पर आसपास के निवासी जैन-यात्री गण आया करते थे।
चीनी-पर्यटक ह्येनत्सांग (६८६-७१२ ई.) ने भी वहाँ की यात्रा की थी तथा वहाँ पर स्थित दस देव-मंदिरों (जैन-मंदिरों) तथा वहाँ विचरण करने वाले अनेक निर्ग्रन्थों (जैन-मुनियों) की चर्चा की है।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ळण म्ण डववत के अनुसार २ “हजरत ईसा की जन्म-शताब्दी से पूर्व ईराक, श्याम एवं फिलीस्तीन (आदि अनार्य देशों) में सैकड़ों की संख्या में श्रमण जैन-मुनि चारों ओर फैले हुए थे। पश्चिमी-एशिया, मिश्र, यूनान एवं एथियोपिया के पहाड़ों