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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013
उक्त वार्तालाप के समय आचार्य दौलामस (daulamus) भूमि पर सूखी घास (पुआल) पर लेटे हुए थे और लेटे-लेटे ही उस (सिकन्दर-दूत-) अंशक्रेटस को उन्होंने उपेक्षा भरी वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया कि- “सर्वश्रेष्ठ राजा-ईश्वर कभी भी बलात् किसी को हानि नहीं पहुंचाता। वह सृष्टि के प्रकाश, जल, मानवीय-तन या आत्मा को भी नहीं बनाता और न ही उनका संहार करता है।” पुनः उन्होंने कहा
- “सिकन्दर कोई देवता नहीं। क्योंकि एक न एक दिन उसे मरना ही है और वह जो पारितोषिक मुझे देना चाहता है वह भी मेरे लिये निरर्थक है। मैं तो परिग्रह-त्यागी हूँ, घास पर निश्चिन्त होकर सोता हूँ। जिस प्रकार माँ अपने बच्चे की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, उसी प्रकार पृथिवी माता और हमारे भक्तगण मेरी भी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करती रहती है। भिक्षावृत्ति में हमें भोजन मिल ही जाता है। कभी-कभी नहीं भी मिलता है, तो उससे भी मैं किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं करता। अतः सिकन्दर भले ही मेरी गरदन काट डाले किन्तु मेरी अजर-अमर आत्मा को नहीं काट सकता। फिर भला मुझे डर किस बात का?
- मृत्योर्विभेषि मूढ, भीतं मृत्युन मुञ्चति।" तुम जाकर उस सिकन्दर को कह दो कि दोलामस तुम्हारे पास नहीं आएगा। उसे तुम्हारी किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं और हाँ, उसे यह भी कह देना कि सिकन्दर को यदि मुझसे कुछ चाहिए हो, तो वह सर्वप्रथम मुझ जैसा (अर्थात् नग्न जैन श्रमण-मुनि) बन जाय।"
सिकन्दर के संदेश-वाहक अंशक्रेटस ने लौटकर दौलामस का वह निर्भीक उत्तर सिकन्दर को कह सुनाया, तो वह सिकन्दर भी आश्चर्यचकित हो गया और उस वृद्ध नग्न साधु दौलामस से अपनी पराजय तत्काल स्वीकार कर ली।
उसी समय से उसके (सिकन्दर के) मन में यह भावना जागृत हो उठी कि ऐसे साधु को यूनान में ले जाकर उससे धर्म-प्रचार कराना अधिक जन-हितकारी होगा। यही निर्णय कर वह (सिकन्दर) दौलामस के साधु-संघ के एक प्रभावी नग्न-साधु कल्याण-मुनि को अपने साथ यूनान ले गया, जिसने वहाँ श्रमण-संस्कृति एवं जैनधर्म का खूब प्रचार किया।
यह ऐतिहासिक प्रसंग इतना भावोत्तेजक एवं रोचक सिद्ध हुआ कि प्रसिद्ध इतिहासकार Mccridle3 Plutarch4 E.I. Thamos", Major Gereral, Furlaung6 Burnior? R.J.Stevension आदि ने अपने-अपने इतिहास-ग्रन्थों में इसकी विस्तार पूर्वक चर्चा की है। मेजर जनरल फर्लाग का यह कथन विशेष महत्त्व का है, जो उन्होंने अपनी दीर्घकालीन खोजों के निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत किया है। यथा - ......... “हिमालय के पार ओक्सियाना, बैकट्रिया और कास्पियाना बहुत पहिले से ही उसी प्रकार से धार्मिक सिद्धान्तों या आचरण में उन्नति कर रहे थे, जैसे भारतीय जैन-बौद्धों के हैं। ऐतिहासिक संदर्भो से प्रायः ही ऐसा ज्ञात होता है कि ई.पू. ७वीं सदी से बहुत पहले ही २० (बीस) से अधिक साधु-तीर्थकरों ने पूर्वीय संसार में धर्म का प्रचार किया था। हम बहुत उचित