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________________ श्रमण संस्कृति की व्यापकता ___-प्रो. डॉ. राजाराम जैन श्रमण-संस्कृति की गरिमा और महिमा युगों-युगों से बड़ी प्रभावक एवं लोकप्रिय रही है। एक पुरातत्त्ववेत्ता का कथन है कि “यदि हम दस मील लम्बी त्रिज्या (Radius) को लेकर भारत के किसी भी स्थान को केन्द्र बनावें, तो उसके भीतर निश्चय से ही जैन-भग्नावशेषों के दर्शन होंगे।" इसीलिये गहन खोजबीन करके इतिहासकारों - डॉ. भण्डारकर, डॉ. वि. ना. पाण्डेय, डॉ. कामता प्रसाद, डॉ. ज्योति प्रसाद, डॉ. वा. दे. शरण अग्रवाल आदि ने भारत में इसकी व्यापकता पर पर्याप्त प्रकाश डाला ही है। अतः मैं यहाँ उसकी चर्चा न कर केवल विदेशों में उसकी व्यापकता पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा। संस्कृति शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक है। उसके अन्तर्गत ज्ञान-विज्ञान, मनोविज्ञान एवं लोक-जीवन के अनेक तत्वों का समावेश माना गया है। सम्बन्धित आलेख विदेशों में उपलब्ध केवल प्राकृत-भाषा, जैन साहित्य, श्रमण-जैन समाज एवं जैन-मंदिरों की व्याप्ति-उपलब्धि तक ही सीमित रखा गया है। पुराविदों के अनुसार ई. सन् की सहस्राब्दियों पूर्व श्रमण जैन संस्कृति तो विदेशों में व्याप्त थी ही उसकी परवर्ती परम्परा में विश्व-विजय के आकांक्षी यूनानी आक्रान्ता सिकन्दर-महान् के कल्याण नामके जैन-मुनि के सत्संग के कारण उसका (सिकन्दर) हृदय-परिवर्तन हो गया था और अनुनय-विनय कर वह उन्हें अपने साथ सर्वोदयी श्रमण-जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार करने हेतु प्राच्यकालीन तक्षशिला (पेशावर) से यूनान ले गया था। कल्याण-मुनि ने भी वहाँ तथा आसपास के प्रदेशों में पर्याप्त मात्रा में श्रमण संस्कृति का प्रचार-प्रसार और वहाँ के निवासियों को पुनः जागृत कर उन्हें अपना भक्त बना लिया था। यह परम्परा इसके बाद भी बनी रही। तत्पश्चात् देव-शास्त्र एवं गुरु के परम आराधक महासार्थवाह कोटिभट-श्रीपाल, चारुदत्त, भविष्यदत्त, जिनेन्द्रदत्त और साहू नट्टल जैसे जैन-व्यापारियों ने भी विदेशों में जाकर व्यापार तो किया ही, अपने साथ वे तीर्थकर-मूर्तियाँ तथा जैन-साहित्य भी लेते गये जो वहाँ के निवासियों को भेंट में प्रदान किये। इस प्रकार उनका विदेशी-श्रमणों के साथ पूर्वागत मैत्री-भाव और भी अधिकाधिक प्रगाढ़ होता गया। इसकी चर्चा ब्रह्म. लामचीदास एवं ठाकुर बुलाकीदास (अठारहवीं सदी) ने अपने-अपने यात्रा-विवरणों में की है।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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