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________________ अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 जहाँ आत्मा है, वहीं संवेदन है। जहाँ संवेदन है, वहाँ आत्मा है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों ने भी एक आत्मा की चर्चा की है पर एक होकर भी वहाँ आत्मा के पर्थाक्य का अभाव है। वेदान्त आत्मा को एक और अद्वैत ही मानता है, अद्वैत का अर्थ है संसार में दूसरी कुछ वस्तु नहीं है। जब दूसरी वस्तु कोई है ही नहीं तब आत्मा को पृथक् मानने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। दो भिन्न वस्तुओं के रहते हुए ही पार्थक्य संभव है। अद्वैत का प्रयोग भी बिना द्वैत को माने हुए नहीं हो सकता। इसलिए कुन्दकुन्द जहाँ आत्मा को एक कहते वहाँ दूसरे भिन्न पदार्थों की भी सत्ता मानते हैं अतः उससे पृथक बताने के लिए उन्होंने एक और विभक्त आत्मा को बताने की प्रतिज्ञा की है। एक का अर्थ भी कुन्दकुन्द के लिए वैशेषिक की तरह एक नित्य सर्वगत एक आत्मा से नहीं है किन्तु वह अपने नियत प्रदेशों में रहती हैं। ज्ञान, दर्शन ही उसका अपना स्वरूप है। उसके साथ दूसरा कुछ भी नहीं है। अमृतचंद ने अध्यात्मकलश में लिखा है। अनुभवमुपयाते भांति न द्वैतमेव' अर्थात् निर्विकल्पदशा में जब आत्मा अपना अनुभव करती है तब वहाँ द्वैत नामकी कोई वस्तु नहीं रहती। उत्तमा स्वात्मचिंतास्यान्मोहचिंता च मध्यमा। अधमा कामचिंता स्यात्, परिचिंताऽधमाधमा।। उत्तम पुरुष स्वात्मा की चिन्ता करते हैं। मध्यम वे होते हैं, जो शरीर की चिन्ता में डूबे रहते हैं। जघन्य वे होते हैं, जो दुनियां की चिन्ता में डूबे रहते हैं। ___ परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन, कर्मणामाशु निर्जरा॥ इष्टोपदेश २४ आत्मा के चिंतवन रूप ध्यान से, परीषहादि का अनुभव न होने के कारण, कर्मों के आस्रव को रोकने वाली निर्जरा शीघ्र होने लगती है। एकोऽहं निर्ममः शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः। बाह्याः संयोगजा भावा, मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा। इष्टोपेदश २७ मैं एक हूँ। मेरा और कोई नहीं है। मैं शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ श्रेष्ठ योगियों द्वारा जाना जाता है। संयोग से उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ मुझसे सभी तरह से बाहर हैं। मैं तो एकत्वविभक्त स्वरूप हूँ और चिद्स्वरूप को भूल करके ये पर सत्ता में निज सत्ता को गौण किये हूँ। यथार्थ मानना, जब तक बंधन महसूस नहीं होता, तब तक निर्बन्ध होना भी कौन चाहता है? आवश्यकता निर्बन्ध होने की नहीं है, आवश्यकता बंध को बंध स्वीकार की है। निर्बन्ध होना कठिन नहीं है लेकिन बंध स्वीकार करना कठिन है। जहाँ द्वैत होता है, वहाँ विसंवाद होता है, जहाँ अद्वैत है वहाँ विसंवाद नहीं है। इसलिए आत्मा अद्वैतवादी अविसंवादी है। एकत्वविभक्त चिद्रूप है, परभावों से भिन्न रूप हैं, वहीं भगवान आत्मा का स्वरूप है। जहाँ दो की कथा प्रारंभ होती है। “बंधकहातेण विसंवादी होई" वहाँ विसंवाद प्रारंभ हो जाता है। एक आत्मा, एक कर्म। आत्मा भिन्न हो जाये, कर्म भिन्न हो जाये तो सिद्धालय में
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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