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________________ 90 अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 कटस्य कर्ताहमिति, सम्बन्धः स्याद् द्वयोर्द्वयोः। ध्यानं ध्येययदात्मैव, सम्बन्धः कीदृशस्तदा।। इष्टोपदेश २५ हे ज्ञानी ! अद्वैत-भाव यानी परम भाव, द्वेत यानी अपरमभाव। सुगत तत्त्व यानी परम तत्त्व, परगत तत्त्व यानी परातत्त्व। में चटाई का कर्ता हूँ। सम्बन्ध जब भी होता है दो में होता है। आत्मा ने आत्मा को आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा से, आत्मा में ध्याया अभेद कारक है। भेद कर दो तो, आत्मा ने अरहंत को, आत्मा से कल्याण के लिए, मन्दिर में बैठकर ध्याया में भिन्न कारक हैं। ये भी सत्य है, वह भी सत्य है। भेद कारक का भी व्यवहार करना चाहिए। अभेदकारक का भी करना चाहिए पर ध्यान रखना, दोनों कारक ज्ञेय हैं, ध्येय शुद्धात्मा है। एकत्त्वभाव वहीं आ सकता है, जहाँ विभक्त भाव होगा। एकत्व भाव पहले नहीं आता, विभक्तभाव लाना चाहिए और विभक्तभाव आ जायेगा, तो एकत्व भाव आ जायेगा। सभी के परिणाम एक से हैं। भिन्न समयवर्ती, एक समयवर्ती, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जो परिणाम हैं एक समय में सभी जीवों के परिणाम एक से हों वह कैसे हो सकता है? पर के उपकार करने का त्याग करके अपने उपकार करने में तत्पर तो दिखाई देने वाले इस जगत की तरह अज्ञानी जीव अन्य पदार्थ का उपकार करता हुआ पाया जाता है। अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः। अनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम्।। अध्यात्म अमृतकलश-२ परद्रव्यों से भिन्न अपने स्वरूप के एकत्व में स्थित आत्मा के अनन्तधर्मों के रहस्य को प्रकाश करने वाली अनेकान्तस्वरूपता ही जिसकी मूर्ति है ऐसी जिनवाणी सदाकाल संसार के प्राणिमात्र के हृदय में प्रकाशित हो। निश्चयनय से आत्मा का यथार्थरूप क्या है आचार्य अमृतचन्द वर्णन करते हैं एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः। पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम्। तन्मुक्त्वा नवतत्वसन्ततिमिमामात्यायमेकोऽस्तु नः।। अमृतकलश-६ अपने समस्त आत्मप्रदेशों में जो ज्ञान रूप से ठोस है, अपने गुणों में तथा पर्यायों में व्याप्त रहने वाले शुद्धनय की अपेक्षा जो अपने ही स्वभाव में स्थित है। इस प्रकार जो इस आत्मा का अन्य समस्त द्रव्यों से पृथक् दर्शन है यही निश्चय से सम्यग्दर्शन है। जितना सम्यग्दर्शन का विषय है उतना ही आत्मा है, अन्य सब अनात्मा है, जड़ स्वरूप है। जब कि ऐसा निर्णय है तब जीव-अजीव-आस्रव-बन्ध संवर-निर्जरा-मोक्ष, पुण्य-पाप ऐसे नव-पदार्थों की श्रद्धा को जिसे व्यवहारतः सम्यग्दर्शन कहा था, उस नवतत्व की कथन परिपाटी रूप व्यवहार को छोड़कर यह विचार करो कि मेरा आत्मा तो इन नव पदार्थों से भिन्न अपने स्वरूप में एकत्व को लिए हुए है, जो अपने एकत्व में ज्ञानानन्दी स्वभाव में स्थित है, वही मैं हूँ, अन्य नहीं।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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