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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 विज्ञ समझते हों किन्तु वे प्रत्यक्ष ही सामान्य लोगों की भांति देखे जाते हैं। हम लोगों में कौन मिता या पितामह श्रेष्ठ या पूज्य माना जाता है' ऐसी जिनकी मति होती है उन्हीं जीवों में प्रत्यक्ष गुरु मूढ़ता घटित होती है।
७. अब लोक में व्याप्त लोक मूढ़ता को कहता हूँ - जो सबको एक समान मानते हैं, जिनकी दृष्टि में कोई गुण विशेष नहीं है। जो श्रेयोमार्ग अथवा व्रत प्रधान मार्ग को नहीं जानते तथा जो बुधिवन्त ऋषियों और अज्ञानियों में अन्तर नहीं मानते। जिनकी भक्ति और दान देखा-देखी होता है। जो निरे सयाने होकर भी लौकिक पथ पर चलते हैं। ये लोग तो अपने आपको ही बड़ा मानते हैं। जो यह मानते हैं कि यही आचार संहिता सुन्दर है, गुण युक्त है, वे लोग लोक गुरु मूढ़ हैं और उनका समग्र गुरु पथ लोक मूढ़ता से संसक्त है। ऐसे मनुष्य अविवेकी हैं, अभागी हैं। मनुष्य जन्म में धर्म का विवेक ही सारभूत है, और स्यात् अस्ति, स्यात्, नास्ति रूप जिनेन्द्रवाणी के विभेद ही प्रयोजनीय हैं।३
पं. भगवतीदास जी ने मइंकलेहाचरिउ में इसी प्रकार अन्यान्य दार्शनिक विषयों का भेद-प्रभेद करके तथा समसामायिक उदाहरणों को जोड़कर जैनदर्शन के धार्मिक पक्ष को लोक लुभावन अपभ्रंश भाषा में प्रस्तुत किया है। इन विषयों पर शोधार्थियों का ध्यान अवश्य जाना चाहिए। विद्वानों के द्वारा भी प्रस्तुत प्रकरण एवं अन्य विविध सैद्धान्तिक प्रकरणों पर प्राचीन परंपरा का ध्यान रखते हुए विमर्श करना आवश्यक है। अपभ्रंश साहित्य के साथ धार्मिक दृष्टिकोण को जोड़कर यदि प्रयास करेंगे तो जैन समाज पुनः इस संपदा का अवलोकन/ आस्वादन कर पाएगी। अपभ्रंश के संजीवन हेतु मेरा यह लघु प्रयास विद्वज्जगत में विमर्शण के लिए प्रस्तुत है। संदर्भ : १. अपभ्रंश साहित्य, प्रो. हरिवंश कोछड़, पृष्ठ ४६-४७ २. मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृष्ठ १३ ३. मइंकलेहा कहा, प्रस्तावना, पृ. १२-१३ ४. मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, पृ.१३-१४ ५. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. १०० १०४ ६. मइंकलेहा-चरिउ, प्रस्तावना, प.६६-६७ ७. मइंकलेहा-कहा, प्रस्तावना पृ. ५०-५२ ८. मइंकलेहा-चरिउ, द्वितीय संधि, दुवई १५, पृ. ८६-८७ ९. मूलाचार, पूर्वार्द्ध, गाथा २५६, पृष्ठ-२१५ १०. रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक २२-२४ ११. मइंकलेहा-चरिउ, संधि २, पद्धडिया १७, प.८८-९१ १२. मइंकलेहा-चरिउ, संधि २, पद्धडिया १८, पृ. ९०-९३ १३. मइंकलेहा-चरिउ, संधि २, पद्धडिया १८-१९, गाथा ५१-६०, पृ. ९२-९९
- श्री दि. जैन आ. सं. महाविद्यालय,
सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)