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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 तह भासइ सत्थु सुणइ सयाणु, सो सत्थ खित्त मूढउ वियाणु ।।१०।। किर काल सत्थ मूढउ रिसीसु, संकंति अमावस गहणु दीसु ।।११।। सुदु भणइ अकालिए अयाणु सोइ, णिरु पढइ पढावइ मुक्खु लोइ।।१२।। भासइ ण सुणइ तियाल वेल, ठिदि थाइ समाइग ठाणि केल।।१३।। सुद भाव मूदु जणि जाणु संत, सुपमत्त उसंतहु आइ अंत ।।१४।। अहवा सत्तम गुण ठाण आइ, अंतिम गुणि खीण कसाइ थाइ।।१५।। विय भाय सुक्कज्झाणि वियाणु, एकत्त वितक्क विचार ठाणु।।१६।। थुइ करइ जिणेसर कव्व जुत्ति, वहु सत्थ पढइ दिंत सुत्ति ।।१७।। सुद्धप्प विसइ णहि दिजिासु, कर भाव सत्थ मूढुत्तु तासु ।।१८।। एवहि परोक्ख सुणि सत्थ मूढु, तिय जोइ ण गोयर वत्थु गूढ ।।१९।। जे सुहुम अद्धवसाण जाणि, वेदा ण तासु सुह असुह ठाणि।।२०।। सु परोक्खमूदु सुद धारु होइ, अहवा सोयारु अयाणु कोइ ।।२१।। भणि सत्थमूढु सु पयक्ख गोहु, अप्पणु णवियाणइ तच्च बोहु ।।२२।। अरहंत देउ दय धम्मु सारु, णिग्गंथु जईसरु गुरु अमारु ।।२३।।
अप्पणु उवएसु करइ सयाणु, अप्पा आराहणि सइ अणाणु ।।२४।। अर्थ - १. जो एकादश अंग को पढ़ता है। सप्त, तत्त्व, नव पदार्थ, पंचास्तिकाय, गति, स्थिति, मूर्त, अमूर्त लक्षणों से युक्त छहों द्रव्यों को, अवकाश देने वाले आकाश द्रव्य को, अकायवान् काल द्रव्य को, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को तथा आगम में वर्णित द्रव्य-गुण-पर्यायों को तो जानता है किन्तु हेयोपादेय वस्तु तत्त्व को नहीं जानता ऐसे पुरुष निज आत्म-प्रकाश को नहीं जानते, वे निश्चित ही द्रव्य श्रुत मूढ़ होते हैं।
२. अब पुराणों में कथित क्षेत्र श्रुत मूढ़ता को कहते हैं। जो नीच स्थानों में अर्थात् वर्जित, गर्हित प्रदेशों में बहुत शास्त्रों को व्याख्यान करते हैं। जहाँ पर मल-मूत्र, शरीरगत सप्त धातुएँ विसर्जित हों, जहाँ उपद्रव हो, भय हो, रोग या रोगी-जन हों। जहाँ नपुंसकों के स्थान हों या उनका आवागमन हो। जहाँ मतिहीन दुष्ट-स्त्री-पुरुष रहते हों। जहाँ आगम-सिद्धान्त के श्रवण वा पृच्छना की परम्परा न हो। नयों के एक या अनेक भेदों में, निश्चय और व्यवहार दोनों नयों के श्रवण में जहाँ लोगों को खेद उत्पन्न होता है। वहाँ जो सुविज्ञ सत्शास्त्रों को पढ़ता अथवा सुनता है उससे क्षेत्र श्रुत मूढ़ता जानना चाहिए।
३. मकरादि संक्रान्तियाँ, अमावस्या, ग्रहण दिखलाई देने पर अथवा दिग्दाह के समय को ऋषिजन अकाल कहते हैं। जो अज्ञानी मूर्खजन इस अकाल में शास्त्र व्याख्यान करते हैं, पढ़ते-पढ़ाते हैं उसे कालश्रुत मूढ़ता जानो।
४. जो सुधीजन इस अकाल में त्रिकाल संध्याओं में न शास्त्र स्वाध्याय करते हैं, न ही सुनते हैं अपितु एक ही स्थान पर स्थित होकर कौतुक वश सामायिक की स्थापना कर क्रीड़ा करते हैं, उसे भावश्रुत मूढ़ता जानों। प्रमत्त गुणस्थान को आदि लेकर उपशान्त कषाय गुणस्थान तक शास्त्र को जानता हुआ जीव भावशास्त्र मूढ़ (?) होता है अथवा सप्तम अप्रमत्त