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________________ 80 अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 ।। पद्धडिया॥ साभरण देव पूया पमाणु, वंदणु थुइ कित्तणु भत्तिठाणु ।।१।। तं दव्व देव मूढत्त वुत्तु, पुणु पाहुड दव्व ठवइ अजुत्त ।।२।। पुणु खित्तमूढ णरु लोइ भासि, चइय अपूय रक्खइ अवासि ।।३।। णिय णयर धामि पुर देसवासि, पूया अवगण्णइ पावरासि ।।४।। सो तित्थ भूमि धावइ अयाण, पडिमा वड वण्णइ दुग्गठाणु।।५।। पुणु कालमूढ जिण सुत्ति वत्तु, णहि तित्थणहु सम सरण जुत्तु।।६।। पूया अयालि वय विहि अयालि, गुर वयणु ण मण्णइ जाम कालि।।७।। णिय कज्जि समप्पइ थप्पिदेणु, भणु तस्स काल मूढत्तुएणु ।।८।। अहुणा देवहु किर भाव मूढ, मण भिंतरि चिंतइ चित्त गूढु ।।९।। सव्वह वंदणु णिंदणु ण कासु, वर बुद्धि सया णिरु घड़इ जासु।।१०।। अइसइ देवत्तणु सयल मज्झि, घिय कज्जु अज्जु किं पइ असज्झि।।११।। इत्तउ किं लोउ अयाणु सव्वु, गिर भाव देव मूढउ सगव्वु ।।१२।। अहुणा परोक्ख मूढत्तु वुत्तु, अरहंत णवइ कुलदेव जुत्तु। ।१३।। केलदेव देवि वंदण विहाणु, णिय गुत्त कित्ति सुर सत्ति दाणु।।१४।। अइसइ वड पुरिसहुंठाणि जस्स, वंदणु तियाल महु होउ तस्स ।।१५।। सु परोक्ख देव मूढत्तु होइ, अप्पांण वियाणइ गोहु सोइ ।।१६।। पुणु पयडु देव मूढत्तु अत्थि, जिणु वंदइ हरिहर वम्ह सत्थि।।१७।। सम वंदणु पूयणु भत्ति जुत्त, सम सो-मण्णइ अहिमणि खुत्त।।१८।। सुपयक्ख मूढ वुत्तउ अणाणु, ण वियाणइ सग्ग- पवग्ग ठाणु।।१९।। भासमि णिरु सीयल परोक्खमूढ, अहुणा णवि रक्खामि भव्व गूढु।२०।। चंडी मुंडी सीयल सयालि, गुग्गा दुग्गा दिणिवर सयालि ।।२१।। इच्छिच्छइ पुत्त कलत्त लच्छि, वसि होइ मूढु णरु णिरु मइच्छि।।२२।। अर्थ- १. आभरणों से युक्त सरागी देवों की पूजा, वन्दना, स्तुति, कीर्तन एवं भक्ति इत्यादि स्थानों को देव मूढता कहा है। इन्हें द्रव्यादिक का उपहार देना भी अयुक्त ठहराया है। इसे ही द्रव्य देव मूढ़ता कहा गया है। २. अब लोक प्रसिद्ध क्षेत्र मूढ़ता को कहते हैं - अपूज्य चैत्य/प्रतिमा (पद्मावती, क्षेत्रपाल, भैरव, यक्ष, मानभद्र, नागबाबादि) को अपने घरों में रखना या अपने नगर, ग्राम, पुर अथवा देश में स्थापित करना, इन्हें स्थान देना, इनकी पूजा करना पाप की राशि रूप क्षेत्र मूढ़ता में परिगणित है। अज्ञानी जन इनकी पूजा के लिए तीर्थ स्थलों की ओर भागते हैं अथवा वटवृक्ष के मूल अर्थात् तल में दुर्गा की प्रतिमा स्थापित करना अथवा उनका स्थान बनवाना इसे लोक क्षेत्र देव मूढ़ता कहा जाता है। ३. अब जिन सूत्र में वर्णित काल मूढ़ता को कहता हूँ - 'तीर्थ के समान अन्य कोई योग्य शरण नहीं है। ऐसा मानकर पूजा के अयोग्य काल में तीर्थों पर पूजा करना तथा व्रतविधान के अयोग्य समय (संक्रान्ति, मेघाच्छन्न, ग्रहणकाल अथवा दुष्काल, सांध्यकालादि दुर्दिनों) में व्रतादिक करना तथा इस समय गुरुओं के वचन न मानकर अपने कार्य सिद्धि हेतु
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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