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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 रमणी, १४. योगी रासा, १५. अनथमी,१६. मनकरहारास,१७. वीरजिनेन्द्र गीत, १८. रोहिणीव्रत रास, १९. ढमालराजमती नेमिसुर, २०. संज्ञानी ढमाल नामक रचनाएं रची थीं, जो उपर्युक्त गुटका में लिपिबद्ध हैं। इनके अतिरिक्त आपकी एक रचना मृगांकलेखा चरित का पता आमेर भण्डार की सूची से चलता है।
मूलकथा एवं धर्मोपदेश -
मइंकलेहा चरिउ के प्रणयन का मूलाधार शील की महिमा को प्रकाशित करना है। नायिका मृगांकलेखा अपरनाम चन्द्रलेखा का जीवन अत्यन्त संवेदनशील दर्शाया गया है। अंजना सती के जीवनवृत्त से इस नारी के जीवन की तुलना करते हुए ब्र. सुमन शास्त्री लिखती हैं- 'जीवन के ऐतिह्य वृत्त में अंजना की समकक्ष होते हुए भी विपत्तियों के मामले में उससे आगे खड़ी है। अंजना ने तो केवल पति वियोग और सासु की भर्त्सना सही। गर्भ भार ढोती हुई जंगलों-जंगलों में भटकी किन्तु उनके साथ उनकी सखी वसन्तमाला थी। पुत्र हनुमान के जन्मते ही मामा प्रतिसूर्य के घर पहुँच गई पर यह सती तो गर्भावस्था में भी जंगलों में नितान्त अकेली थी। पुत्र जन्म से पूर्व सखी चित्रलेखा बिछड़ गई। जन्मते शिशु को मांस लोभी श्वान उठा ले गया। शील के प्रताप से कामी बसन्त सेठ की कामुकी दृष्टि से बची तो बलि हेतु राजदरबार के चण्डी मंदिर में बलिवेदी के समक्ष खड़ी हो गई। अहिंसा के प्रभाव से राजा सुंदर को अहिंसक बना अभय को प्राप्त हुई तो राक्षसी माया और वनराज का ग्रास होते होते बची, यहाँ भी उसका शील जन्य पुण्य ही सहयोगी था। अन्त में वेश्या की शिकार हुई, उसने मृगांकलेखा को वेश्या कर्म हेतु प्रताड़ित किया, वहाँ भी शील ही रक्षक बना। वेश्या ने उस रूपवती को राजभय के कारण राजदरबार में भेज दिया। उस विवेक शीला को अपने शील रक्षार्थ पागल महिला का रूप धारण करना पड़ा। अन्ततोगत्वा पुण्य व शील प्रताप से कष्टों का विशाल सागर तैर गई और धर्म की शरण में उस धर्मवती को पुत्र और पति का समागम हुआ। कुछ समय तक सांसारिक सुख भोगकर संसार से विरक्त हो पति के साथ आर्यिका दीक्षा धारण कर संसार छोड़ दिया।'६ ___ संसार के समस्त प्राणियों को जो उत्तम सुख में पहुँचा दे, उसे धर्म कहते हैं। यह धर्म दो प्रकार का होता है - श्रावकधर्म और मुनिधर्म। मइंकलेहा-चरिउ में श्रावक धर्म का विशेष वर्णन है। कृति में सम्यक्त्व को सागारधर्म का सार कहा है। आज्ञा, मार्ग, उपेदश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़ रूप सम्यग्दर्शन के दस भेदों की परिभाषायें प्रस्तुत की गई हैं। देव, शास्त्र और गुरू मूढताओं के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रत्यक्ष, परोक्ष और लौकिक के भेद से प्रत्येक के सात भेद बताये गये हैं। गुरु मुढता में पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, संतसेव और मृगचारी इन पंचविध श्रमणाभास को समझाया है। पंच अणुव्रत, तीन अणुव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विशद वर्णन है।
प्रातः उठकर जिनेन्द्र देव की वंदना कर स्नान और वस्त्र विशुद्धि पूर्वक जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करना, राग रहित होकर स्तुति करना, अपरान्ह में जिननाथ की उक्तियाँ बोलना उत्तम प्रथम शिक्षाव्रत है। दोनों समय देव वंदना करना मध्यम और एक समय प्रसन्नता से