SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पं. भगवतीदास विरचित 'मइंकलेहा-चरिउ' में मूढ़त्रय विवेचन डॉ. पुलक गोयल प्राचीन भारतीय वाङ्गमय को समृद्धता के शिखर पर पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के माध्यम से हुआ है। संस्कृत को आज भी देश में व्यापक स्तर पर मान्यता प्राप्त है। प्राकृत और अपभ्रंश का साहित्य कभी इस देश के बहुसंख्यक लोगों द्वारा समादृत रहा है। राजदरबारों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के कवियों को आसन दिया जाता था। अपभ्रंश भाषा में जन-मन-रंजन की अद्भुत क्षमता है जिसका रसास्वाद वर्तमान क्षेत्रीय भाषाओं/ बोलियों में सहज होता ही है। अपभ्रंश भाषा में लाड़-प्यार है, तरूणाई का मदमस्त आकर्षण है, उत्साह है, उमंग है। अपभ्रंश में सरलता, सहजता, स्वाभाविक तरलता आदि कितने प्राकृतिक गुण हैं। प्रकृति ने इस भाषा को बनाया नहीं है, परन्तु प्रकृतिस्थ लोगों के आनन्द की यह मौलिक अभिव्यक्ति जरूर है। अपभ्रंश का स्वर्ण युग बीत चुका है। अद्यावधि अपभ्रंश की संतति का स्वर्णकाल है। गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, सिंधी, मराठी, बिहारी, बंगला, उड़िया, असमिया और राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा अन्य प्रादेशिक बोलियाँ भी इसकी संतान परम्परा का हिस्सा हैं। इन भाषाओं के विकास क्रम को समझने के लिए अपभ्रंश की सहायता लेना अनिवार्य है। इस कारण से अपभ्रंश को अकादमिक स्तर पर साहित्य प्रेमियों ने जीवित रखा है। यह अच्छा है परन्तु अपभ्रंश अपने मौलिक प्रयोजन से भटकने के कारण जन सामान्य से दूर हो गई है। अपभ्रंश कवियों ने इस भाषा को चुना और धर्मप्राण समाज की स्थापना हेतु इसका प्रयोग किया और जन समर्थन प्राप्त किया। अपभ्रंश की इस विशेषता को पुष्ट करते हुए प्रो. हरिवंश कोछड़ मूल समस्या के समाधान तक ले जाने का प्रयास कर रहे हैं - 'अपभ्रंश साहित्य अधिकांश धार्मिक आचरण से आवृत्त है। माला के तन्तु के समान सब प्रकार की रचनाएँ धर्मसूत्र से ग्रंथित हैं। अपभ्रंश कवियों का लक्ष्य था - एक धर्म प्रवण समाज की रचना। पुराण, चरिउ, कथात्मक कृतियाँ, शास्त्र आदि सभी प्रकार की रचनाओं में वही भाव दृष्टिगोचर होता है। कोई प्रेम कथा हो चाहे साहसिक कथा, किसी का चरित हो चाहे कोई और विषय हो, सर्वत्र धर्म तत्त्व अनुस्यूत है। अपभ्रंश लेखकों ने लौकिक जीवन एवं गृहस्थ जीवन से सम्बद्ध कथानक भी लिखे, किन्तु वे भी इस धार्मिक आवरण से आवृत्त हैं। भविसयत्तकहा, पउमसिरिचरिउ, सुदंसणचरिउ, जिणदत्तचरिउ आदि इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं। मानों धर्म इनका प्राण था और धर्म ही इनकी आत्मा।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy