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महावीर जयन्ती (२३ अप्रैल २०१३) के पुनीत प्रसंग पर
महावीर का स्वास्थ्य दर्शन
डॉ. चंचलमल चोरडिया
सम्यक् जीवन शैली : स्वास्थ्य का मूलाधार -
महावीर का दर्शन मौलिक रूप से स्वस्थ्य और चिकित्सा का दर्शन नहीं है, वह तो आत्मा से आत्मा का दर्शन है। परन्तु जब तक आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो जाती तब तक, आत्मा शरीर के बिना रह नहीं सकती। शरीर की उपेक्षा कर आत्म-शुद्धि हेतु साधना भी नहीं की जा सकती। महावीर की दृष्टि में शरीर का आत्म-साधना हेतु महत्त्व होता है, इन्द्रियों के विषय भोगों के लिए नहीं। उनका अधिकांश चिन्तन आत्मा को केन्द्र में रख कर हुआ, परन्तु उन्होंने शरीर के निर्वाह हेतु केवल ज्ञान के आलोक में, जिस सम्यक् जीवन शैली का कथन किया, वह स्वतः मानव जाति के स्वास्थ्य का मौलिक शास्त्र बन गया।
जीवन हेतु प्राण आवश्यक -
जिस शक्ति विशेष द्वारा जीव जीवित रहता है अर्थात् जीवन जीने की शक्ति को प्राण कहते हैं। संसार में दो तत्त्व मुख्य होते हैं। प्रथम- जीव या आत्मा अथवा चेतन और दूसरा अजीव अथवा जड़ या अचेतन। इन तत्त्वों से ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड की संरचना होती है। इसी आधार पर ऊर्जा को भी मोटे रूप में दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहली चैतन्य अथवा प्राण ऊर्जा और दूसरी भौतिक ऊर्जा। जिस ऊर्जा के निर्माण, वितरण, संचालन और नियंत्रण हेतु चेतना की उपस्थिति आवश्यक होती है, उस ऊर्जा को प्राण ऊर्जा और बाकी ऊर्जाओं को जड़ अथवा भौतिक ऊर्जा कहते हैं। जब तक शरीर में आत्मा अथवा चेतना का अस्तित्व रहता है, प्राण ऊर्जा क्रियाशील होती है। मानव जीवन का महत्व होता है, परन्तु उसकी अनुपस्थिति में अर्थात् मृत्यु के पश्चात् प्राण ऊर्जा के अभाव में मानव शरीर का कोई महत्त्व नहीं। अतः उसको जला अथवा, दफना कर नष्ट कर दिया जाता है। भौतिक विज्ञान प्रायः जड़ पर ही आधारित होता है। अतः उसकी सारी शोध एवम् चिन्तन जड़ पदार्थों तक ही सीमित रहती है। फलतः विज्ञान के इतने विकास के बावजूद आज के स्वास्थ्य वैज्ञानिक शरीर के किसी भी अवयव जैसे बाल, नाखून, कोशिकाएँ, रक्त, वीर्य जैसे किसी भी अवयव को निर्माण करने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं, जिसका चेतना युक्त शरीर में स्वयं निर्माण होता है।