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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 देखने, सूंघने, चिंतन-मनन करने, वाणी की अभिव्यक्ति आदि अलग-अलग होती है। कभी-कभी भौतिक उपचारों से कान, नाक, चक्षु जीभ आदि इन्द्रियों के द्रव्य उपकरणों में उत्पन्न खराबी को तो दूर किया जा सकता है परन्तु उनमें प्राण ऊर्जा न होने से भौतिक उपचार सदैव सफल नहीं होते। इसी कारण सभी नेत्रहीनों को नेत्र प्रत्यारोपण द्वारा रोशनी नहीं दिलाई जा सकती। सभी बहरे उपकरण लगाने के बाद भी सुन नहीं सकते। मूर्ति में मानव की आँख लगाने के बाद उसमें देखने की शक्ति नहीं आ जाती।
सारी प्राण शक्तियाँ आपसी सहयोग और समन्वय से कार्य करती है, परन्तु एक दूसरे का कार्य नहीं कर सकती। आंख सुन नहीं सकती। कान बोल नहीं सकता, नाक देख नहीं सकता इत्यादि। प्राण ऊर्जा का जितना सूक्ष्म एवं तर्क संगत विश्लेषण महावीर दर्शन में है उतना, आधुनिक चिकित्सा पद्धति में भी नहीं किया गया। संयम ही स्वस्थ जीवन की कुंजी -
प्राण और पर्याप्तियों पर ही हमारा स्वास्थ्य निर्भर करता है। शरीर एवम् प्राण का परस्पर सम्बन्ध न जानने पर कोई भी व्यक्ति न तो प्राणों का अपव्यय अथवा दुरुपयोग ही रोक सकता है और न अपने आपको निरोग ही रख सकता है। आत्मिक आनन्द और सच्ची शांति तो प्राण ऊर्जा के सदुपयोग से ही प्राप्त होती है। यही प्रत्येक मानव के जीवन का सही लक्ष्य होता है। प्रतिक्षण हमारे प्राणों का क्षय हो रहा है। अतः हमारी सारी प्रवृत्तियाँ यथा संभव सम्यक् होनी चाहिये। पाँचों इन्द्रियों, मन, वचन का संयम स्वास्थ्य में सहायक होता है तथा उनका असंयम रोगों को आमंत्रित करता है। हवा, भोजन और पानी से ऊर्जा मिलती है परन्तु उनका उपयोग कब, कैसे, कितना, कहाँ का सम्यक्ज्ञान और उसके अनुरूप आचरण आवश्यक होता है? स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग भी ऊर्जा के स्रोत होते हैं, जिनका जीवन में आचरण आवश्यक होता है। प्राण ऊर्जा के सदुपयोग से शरीर स्वस्थ, मन संयमित, आत्मा जागृत और प्रज्ञा विकसित होती है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्तियों और प्राणों का बहुत महत्व होता है। अतः महावीर ने प्राण और पर्याप्तियों के संयम एवं सदुपयोग को सर्वाधिक महत्त्व दिया। जहाँ जीवन है वहाँ प्रवृत्ति तो निश्चित रूप से होती ही है। अतः पर्याप्तियों और प्राणों के संयम का मतलब हम उनका अनावश्यक दुरुपयोग अथवा अपव्यय न करें, अपितु अनादिकाल से आत्मा के साथ लगे कर्मों से छुटकारा पाने हेतु सदुपयोग द्वारा सम्यक् पुरुषार्थ करें। आहार संयम - जीवन चलाने के लिए जितना आवश्यक हो भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक रखकर आहार-पानी आदि ग्रहण करना। शरीर का संयम - शरीर की आवश्यक प्रवृत्तियों से बचना एवं सम्यक् पुरुषार्थ करना। इन्द्रियों का संयम - इन्द्रियों की क्षमता से अधिक तथा अनावश्यक कार्य न लेना। वीर्य का नियंत्रण रखना अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करना। इन्द्रिय विषयों को उत्तेजित करने वाली प्रवृत्तियों एवं वातावरण से यथा संभव दूर रहना। श्वास का संयम - मन्द गति से दीर्घ श्वास लेना तथा पूरक और रेचक के साथ-साथ कुम्भक कर श्वास को अधिकाधिक विश्राम देना। जितना अधिक श्वास का संयम होगा,