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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 व्यवहार अभूतार्थ है अर्थात् विशेषता को दृष्टि में रखकर विषमता को पैदा करने वाला है किन्तु शुद्धनय भूतार्थ है क्योंकि वह समता को अपनाकर एकत्व को लाता है। समता को अपनाकर ही सम्यग्दृष्टि अर्थात् समीचीनतया देखने वाला होता है।
यहाँ भूत का अर्थ-सत् (विद्यमान) है और अभूत का अर्थ असत्- (अविद्यमान) है अथवा भूत का अर्थ सत्य-वास्तविक औ अभूत का अर्थ असत्य-अवास्तविक है। ऐसे सत्-विद्यमान और सत्य पदार्थ भूतार्थ है, उनको जानने वाला नय की भूतार्थ है, उसी प्रकार से असत्-अविद्यमान अथवा असत्य-पदार्थ अभूतार्थ हैं, उनको ग्रहण करने वाला नय भी अभूतार्थ है। गुण-गुणी में भेद करने वाला व्यवहार होता है और अभेद करने वाला निश्चय होता है। जहाँ तक गुण-गुणी में भेद है, वहां तक अभूतार्थ संज्ञा है और जहां से अभेद प्रकट होती है वहाँ पर भूतार्थ है। क्योंकि शुद्धनय तो अभेद मात्र को ही विषय करता है अतः उसकी दृष्टि में शुद्ध गुणों के भेद भी असत्-अविद्यमान या असत्य ही है। इसी विषय को स्पष्ट करते हुए देशनाकार आचार्य श्री विशुद्धसागर महाराज कहते हैं कि आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव निश्चय को ही भूतार्थ कहना चाहते हैं, विभाव अभूतार्थ है। जो उस निश्चय भूतार्थ को स्वीकारता है, वह सम्यग्दृष्टि है। देशनाकार लौकिक उदाहरण के द्वारा समझाते हैं कि जिसका अनादिकाल से सेवन किया हो, उसका उस पर राग होता है जरा भी निश्चय की प्रधानता से कथन हुआ तो जीव घबड़ाने लगता है कि व्यवहार का लोप हो जायेगा। लोप किसी का होता ही नहीं है। विभाव है, था, रहेगा। लेकिन सत्यार्थ नहीं है एक जीव की अपेक्षा कथन नहीं किया है। सामान्य अपेक्षा कथन है। मिथ्यात्व है, था, रहेगा। इसी प्रकार सम्यक्त्व है, था, रहेगा। मिथ्यात्व का विनाश ही तो सम्यक्त्व है। यदि मिथ्यात्व नहीं होता तो संसार नहीं रहता, कुलिंगी न दिखते, जिनलिंग में दीक्षित होने के उपरान्त भी नाना परिणाम बुद्धि में चल हरे हैं यह क्या सम्यक्त्वपना है, जो अनेक-अनेक अपनी-अपनी आम्नाय चला बैठे। यहाँ प्रवचन में मुनियों को सावधान करने का भाव दिख रहा है। सम्यक्त्व का अभाव ही मिथ्यात्व है। यदि सम्यग्दृष्टि जीव दिख रहे हैं, वे मिथ्यात्व की सूचना दे रहे हैं और जो मिथ्यादृष्टि दिख रहे हैं वे सम्यग्दृष्टि की सूचना दे रहे हैं। अर्पितानर्पितसिद्धेः" एक अर्पित तो एक अनर्पित। व्यवहार जो है, अभूतार्थ है और जो निश्चय है, वह भूतार्थ है। विभाव अभूतार्थ क्यों है? निश्चय की अपेक्षा से व्यवहार अभूतार्थ है, परन्तु व्यवहार अपेक्षा से निश्चयभूतार्थ है। व्यवहार में निश्चय को अभेद करा दोगे तो वह निश्चय नहीं अभूतार्थ हो जायेगा। यहाँ पर आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि के अमृतकलश के एक कलश को प्रस्तुत कर समझाते हुए देशनाकार कहते हैं- अहो ज्ञानी! मिट्टी का घट है, परन्तु घट घी का कहा जाता है
घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत्।
जवोवर्णादिभ्यज्जीवो जल्पनेऽपि न तन्मयः।। लोक में घृत के रखने के कारण मिट्टी के घड़े को भी घी का घड़ा है" ऐसा उसमें व्यवहार करते हैं, पर वह अपेक्षित कथन है, परमार्थ ऐसा नहीं है। परमार्थ से वह मिट्टी का ही घड़ा है। इसी प्रकार शरीरस्थ होने से जीव काला-गोरा या एकेन्द्रिय-नर नारक कहा जाता है, पर द्रव्य भेद से देखो तो जीव तो इस पुद्गल प्रकृति से भिन्न चैतन्यस्वरूप है, वह वर्णदि