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________________ अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 इस भूतार्थ और अभूतार्थ के समझाने में आचार्य श्री विशुद्धसागर महाराज की प्रज्ञा विलक्षण है, उन्होंने आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव की गाथा भूयत्थेणाभिगदा जीवा जीवा य पुणपावं च।। आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।३।।समयसार।। का भाव स्पष्ट करते हुए समझाया है कि वही द्रव्य भूतार्थ है वही अभूतार्थ भी है और युगपत् व्यवहार दृष्टि से भी लौकिक कार्यों में भी एक ही द्रव्य भूतार्थ भी होता है, अभूतार्थ भी होता है। इसको एक लौकिक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है। जैसे किसी को भूख लगी है, तो उसको भोजन भूतार्थ है, यदि उसका उपवास है, तो उसे वही भोजन अभूतार्थ है। ऐसे ही आत्मा जब अशुभ भाव में परिणमन करे तो अभूतार्थ है और वही आत्मा शुभभाव में परिणमन करे तो भूतार्थ है। जब आत्मा की परिणति स्वभाव अभिमुख हो जाय तो भूतार्थ है और स्वभाव से विमुख हो जाय तो अभूतार्थ है। यहाँ देशनाकार द्वारा शुभभाव में परिणत आत्मा को भी भूतार्थ कहा है, जो युक्ति सम्मत प्रतीत नहीं होता है क्योंकि आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव का भाव तो स्वभाव में परिणत आत्मा को भूतार्थ कहना प्रतीत होता है। आचार्य वर्य और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि व्यवहारनय अभूतार्थ है और भूतार्थ भी है। केवल व्यवहार ही भूतार्थ अभूतार्थ नहीं है शुद्ध निश्चयनय भी भूतार्थ भी है, अभूतार्थ भी है। यह समझ में आ जाय तो विसंवाद समाप्त हो जाये। विसंवाद क्यों हो रहा है? एक नय से कह देते हैं कि व्यवहार तो अभूतार्थ ही है, निश्चय भूतार्थ ही है। नहीं, निश्चय तो निश्चयनय की अपेक्षा से भूताथ ही है, व्यवहार की अपेक्षा से निश्चय अभूतार्थ है, निश्चय की अपेक्षा से व्यवहार अभूतार्थ है। व्यवहार तो व्यवहार की अपेक्षा से भूतार्थ ही है। क्यों है? जो व्यवहार व्यवहार ग्रहण कर रहा है, उसे निश्चय ग्रहण नहीं करता। एक उदाहरण इस प्रकार समझाया है कि रोटी तो रोटी है, पुड़ी तो पुड़ी है, दोनों गेहूँ के आटे रूप द्रव्य से बनी है, पर दोनों की पर्याय की प्रत्यासति भिन्न-भिन्न है। दोनों के स्वाद की भी भिन्नता है। जिसको पुड़ी रुचती है उसके लिए रोटी अभूतार्थ है और जिसको रोटी रुचती है उसको पुड़ी अभूतार्थ है। जिसकी योग्यता निश्चय में है नहीं, उसके लिए व्यवहार ही भूतार्थ है। जो शुद्धात्मा को जानने की योग्यता नहीं रखते उन्हें देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करना मिथ्यात्व से बचना भूतार्थ है। लेकिन जैसे मलेच्छ के लिए स्वस्ति शब्द अभूतार्थ है उसी प्रकार जिसने शुद्धात्मा को नहीं समझा उसे निश्चय अभूतार्थ है। परन्तु परमशुद्धोपयोगी ज्ञानी के लिए भूतार्थ है। इस भूतार्थ-अभूतार्थ दृष्टि को आचार्य अमृतचन्द्र देव और आचार्य जयसेन तो खुलासा किया ही है, आचार्य श्री विशुद्धसागर महाराज ने लौकिक उदाहरणों से समझना आसान कर दिया भूतार्थदृष्टि भूतार्थनय-निश्चय नय का आश्रय लेने वाले की होती है। निश्चयनय की विवक्षा से सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाने के लिए ही आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा है भूयत्थेणाभिगदा जीवा जीवा य पुण्ण-पावं च। आसव-संवर-णिज्जर-बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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