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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 (४) भावशुद्धि - वक्ता एवं श्रोताओं में क्रोधादि संक्लेश भावों का न होना भाव-शुद्धि है। क्रोध-मान-माया-लोभ, ईर्ष्या-असूया आदि संक्लेश परिणामों से भावों में विशुद्धि और चित्त में स्थिरता नहीं रहती। स्वाध्याय-काल में वक्ता, श्रोता दोनों के परिणामों में विशुद्धि तथा उपशम भावों का होना आवश्यक है। इसके अलावा दोनों को ही खान-पान में संयम रखना भी जरुरी है। ___अयोग्य द्रव्यादि में स्वाध्याय के दुष्परिणाम - सुयोग्य- शुद्ध द्रव्य-क्षेत्र-काल- भाव सदैव सुफल। इष्टपरिणाम देने वाले होते हैं। क्योंकि ये वक्ता श्रोता के अन्तस्थल तक प्रभावकारी होते हैं। शुद्ध द्रव्यादि में मन की एकाग्रता और विशुद्धि अधिक होती है। जिसका प्रतिफल भी स्वाध्यायी को अधिक मिलता है। इसके विपरीत जो सून्नार्थ की शिक्षा के लोभ में शुद्ध द्रव्यादि का ध्यान न रखते हुए अयोग्य कालादि में स्वाध्याय करते हैं, वे सम्यक्त्व की विराधना (असमाधि) करते हैं। वे अयोग्य कालादि के प्रभाव से रागी होते हैं और उनके यहाँ क्लेश लड़ाई-झगड़े (कलह) विसंवाद आदि होते ही रहते हैं। पर्व दिवसों में भी स्वाध्याय/ अध्ययन विघ्नकारी, कलहकारी, विद्या उपवास विधि का विघातक तथा गुरु-शिष्य का वियोगकारी होता है।
मूलाराधना में कहा गया है कि चार प्रकार के सूत्र (गणधर-प्रत्येकबुद्ध- श्रुतकेवली और अभिन्न दसपूर्वी द्वारा कथित सूत्र) कालादि की शुद्धि के बिना संयमियों और आर्यिकाओं को नहीं पढ़ना चाहिए।
पठनीय - इनके अलावा अन्य ग्रन्थ पढ़े जा सकते हैं। जैसे- चारों आराधनाओं के स्वरूप- प्रतिपादक ग्रन्थ, सत्रह प्रकार के मरणों का वर्णन करने वाले ग्रन्थ, स्तोत्र-पाठादि के ग्रन्थ, आहारत्याग के उपदेशकारी ग्रन्थ, षडावश्यक प्रतिपादक शास्त्र और महापुरुषों के चरित्र के प्रतिपादक ग्रन्थ कालशुद्धि आदि के बिना भी पढ़े जा सकते हैं। अस्तु सिद्धान्तशास्त्रों में इसी तरह से कालादिशुद्धि का विधान वर्णित है।
स्वाध्याय काप्रतिष्ठापन और निष्ठापन - शुभ ध्यान और संवर-निर्जरा में कारणभूत स्वाध्याय अन्तरंग तपों में उत्तम तप है। यह स्वाध्यायी को सुसंस्कारी भी बनाता है। जैनशास्त्रों में श्रमण और श्रावक दोनों को ही विधिपूर्वक स्वाध्याय करने की प्रेरणा आचार्य भगवन्तों ने दी है। श्री धवला पुस्तक ९ में कहा है कि स्वाध्याय का प्रतिष्ठापन (प्रारंभ) दिन और रात की चारों बेलाओं (पूर्वाह्न अपराह्न पूर्वरात्रिक अपर रात्रिक) में हाथ-पैरों की शुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, दिग्विभागों की शुद्धि करके विशुद्ध प्रशान्त मन और उपशान्त भावों के साथ प्रासुक स्थान में बैठकर बाजू, कांख, पैर आदि अंगों का स्पर्श न करते हुए लघु श्रुत भक्ति और आचार्य भक्ति का पाठ करके करना चाहिए। इसके बाद एक निश्चित समय तक पूर्णमनोयोग से यत्नपूर्वक अध्ययन करके लघु श्रुत भक्ति के पाठ के साथ इसका निष्ठापन (समापन) करना चाहिए। स्वाध्याय में ज्ञानाचार के आठ अंगों का परिपालन भी अवश्य होना चाहिए। इस तरह विधि ओर मर्यादापूर्वक किया गया स्वाध्याय ही कार्यकारी- इष्ट फलदायी होता है।
दिग्विभाग की शुद्धि - श्री मूलाचार- (गाथा २७३) में कहा गया है ६- कि पूर्वाह्न, अपराह्न और प्रदोष कालों के स्वाध्याय करने में दिशाओं के विभागों की शुद्धि के लिए नौ,