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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 (४) बहुमानाचार - शास्त्रों में जो जैसे प्रतिपादन है, उसका वैसा ही उच्चारण करते हुए स्वयं पढ़ना और अन्यों को भी पढ़ाना तथा शास्त्रों की/गुरुओं की/ आचार्यों की/मुनिराजों की भी आसादना नहीं करना, उन्हें आदर-सूचक वचनों से बहुमान करते हुए बोलना यही बहुमानाचार (शुद्धि) है।
(५) अनिवाचार - मूलाचार में कहा है५२ - जिस गुरु से शास्त्र को पढ़ा-समझा है, उनका नाम न छिपाना “अनिह्नवाचार" है। जो अपने गुरु का नाम छिपाकर कहते हैं कि "यह शास्त्र हमने स्वयं पढ़कर जाना-समझा है" वे शास्त्रानिह्नव और गुरु-निह्नव दोष के भागी होते हैं। जिनसे महान कर्मबन्ध होता है। अतः गुरु का नाम नहीं छिपाना चाहिए।
(६) व्यंजनाचार (७) अर्थाचार (८) तदुभयाचार५३ – शास्त्रों के अक्षर-वाक्य-पदों को शुद्ध पढ़ना-शुद्ध-उच्चारण करना व्यंजनाचार (शुद्धि) है उन सूत्रों/शास्त्रों/ अक्षर-पद-वाक्यों का अर्थ भी शुद्ध समझना- अर्थाचार (अर्थशुद्धि) है और इन्हें शुद्ध पढ़ना और शुद्ध अर्थ करनासमझाना-तदुनयाचार (शब्द और अर्थ की शुद्धि) है। शास्त्रों को इन शुद्धियों पूर्वक पढ़ने-पढ़ाने से ज्ञान विशुद्ध हो जाता है।
शुद्धियों पूर्वक पढ़ा गया शास्त्र प्रमादवश विस्मृत हो जाने पर भी वह अन्य जन्म में स्मरण आ जाता है औ केवलज्ञान कराने में भी निमित्त बनता है। अतः कालादि की शुद्धिपूर्वक ही शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए।५४
वक्ता एवं श्रोता - जैनशास्त्रों में वक्ता एवं श्रोताओं के गुणों/योग्यताओं का भी उल्लेख किया गया है। तदनुसार वक्ता/व्याख्याता को शब्दशास्त्र एवं विषय-मर्मज्ञ, विनम्र निर्लोभी, न्यायवृत्ति वाला, ख्याति-लाभ-पूजादि की चाह से निरपेक्ष, स्वपर-हित की भावना वाला, सन्तोषी, देशकाल की परिस्थिति का ज्ञाता, श्रोताओं की योग्यताओं/ क्षमताओं को समझने वाला, प्रश्न-सहिष्णु, वात्सल्यमयी, क्षमाशील, मृदुभाषी, जिनश्रद्धानी तथा सात्त्विक आहार विहारी होना चाहिए।
श्रोताओं को भी जिन वचनों का श्रद्धानी, तत्त्वजिज्ञासु, निश्च्छल, विनम्र, व्यसनमुक्त, अष्टमूलगुण-पालक, षडावश्यक कर्तव्यों का कर्ता, निर्मल उपयोग और न्यायवृत्ति वाला, क्षमाशील, सन्तोषी, सरल, सात्त्विक आहारी और सदाचारी होना चाहिए।
उपसंहार- श्री धवला पु. ९ में६ श्रुत के माहात्म्य को दर्शाते हुए इसके सतत स्वाध्याय की प्रेरणा दी गई है-“जिनवचन/जैनागम अज्ञानविनाशक, मोहनाशक, कर्म-मार्जक, भव्यात्माओं को आह्लादकारी और मुक्ति पथ-प्रदर्शक हैं। अतः इन्हें खूब भजो।” अस्तु श्रुततीर्थ की मोक्षमार्ग की श्रमण परम्पा अक्षुण्ण बनी रहे, जैनधर्म प्रवर्थमान रहे, श्रमण संस्कृति कायम रहे-एतदर्थ चतुर्विध संघ में सतत श्रुताभ्यास की परम्परा सुदृढ़ बनी रहनी चाहिए।आगम-ज्ञान के अभाव में शिथिलाचार पनपता और बढ़ता है, भ्रान्तियाँ फैलती हैं, मिथ्या मान्यताओं का पोषण होता है, समाज में विघटन होता है। अतः ज्ञानार्जन हेतु आज नियमित स्वाध्याय की/ शास्त्र सभाओं की/तत्त्वगोष्ठियों में चर्चाओं की/सेमिनारों और वाचनाओं की/शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों के आयोजनों की महती आवश्यकता है। चारों अनुयोगों के रूप में विपुल साहित्य आज हमें उपलब्ध है। उसे योग्यकाल में भक्तिभाव से खूब पढ़ो-पढ़ाओ।