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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 स्वाध्याय से अच्छे-बुरे का, गुण-दोषों का, भक्ष्य-अभक्ष्य का और हिताहित का सद्विवेक जाग्रत होता है। धर्म में अनुराग, पंच परमेष्ठियों में परम भक्ति एवं श्रद्धान सुदृढ़ होता है। कषायों की मन्दता से परम सन्तोष, आनन्द एवं दया की अभिवृद्धि होती है। अशुभकर्म कटते हैं और पूर्वसंचित पाप गलते/धुलते हैं। फलतः सम्यक्त्व प्रकट होकर मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। भगवती आराधना में आचार्य श्री शिवार्य ने कहा है- 'साधु जैसे-जैसे अतिशय रस से भरपूर अश्रुतपूर्व श्रुत (शास्त्र) का अवगाहन करते हैं वैसे-वैसे अतिशय नवीन धर्मश्रद्ध से संयुक्त होते हुए परमानन्द का अनुभव करते हैं तथा स्वाध्याय से प्राप्त आत्मविशुद्धि के द्वारा निष्कम्प तथा हेयोपादेय में विचक्षण-बुद्धि होकर यावज्जीवन रत्नत्रयमार्ग में प्रवर्तते हैं।२९
तिलोयपण्णत्ती में आचार्य श्री यतिवृषभ ने भी कहा है- 'परमागम पढ़ने से सुमेरु-समान निश्चल मूढ़ताओं और शंकादि दोषों से रहित अनुपम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। श्री परमात्मप्रकाश में भी कहा गया है कि “ज्ञान प्राप्ति के उपायभूत शास्त्रों का पढ़ना परम्परा से मोक्ष का साधक है। आत्मानुशासन में आ.श्री गुणभद्र जी कहते हैं- शास्त्ररूपी अग्नि में प्रविष्ट हुआ भव्यजीव मणि के समान विशुद्ध होकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। अर्थात् जैसे पद्मराग मणि आग में तपकर सदा के लिए विशुद्ध/निर्मल हो जाती है उसी प्रकार श्रुताभ्यास से भव्य जीव रागद्वेषादि मल से रहित होकर विशुद्ध होता हुआ मुक्त हो जाता है। सच है, संसार-सिन्धु तिरने के लिए स्वाध्याय सुरक्षित जलयान के समान है।
स्वाध्याय सांसारिक व्याधियों के विनाश के लिए अचूक रामबाण औषधि है तथा समस्त सांसारिक दुःखों का क्षय कर मोक्षसुख को देने वाला है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने दंसण-पाहुड में कहा है-२५ “जिनवचन रूपी औषधि वैषयिक सुखों का विरेचन कर जन्म-मरण के नाश हेतु अमृत के समान है और सभी दुःखों के क्षय का कारण है।" रयणसार में भी कहा प्रवचन के सार का अभ्यास जिनशास्त्रों का स्वाध्याय परमात्मा के ध्यान का कारण है और ध्यान से ही कर्मों का नाश तथा मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। प्रवचनसार में भी उन्होंने बताया है कि जैनशास्त्रों के स्वाध्याय से तत्त्वज्ञान और नियम से मोहक्षय होता है। अतः जैनशास्त्रों का सम्यक्प से स्वाध्याय करना श्रेयस्कर है।
मोक्षमार्ग में श्रुताराधना/श्रुताभ्यास/स्वाध्याय का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी से आचार्य भगवन्तों ने स्थान-स्थान पर इसको करते रहने की प्रेरणा दी है। स्वाध्याय को अन्तरंग तपों में समाहित तो किया ही है, श्रावकों के षडावश्यकों में भी शामिल कर प्रतिदिन नियमतः स्वाध्याय करने की प्रेरणा समस्त श्रावकों को भी दी गई है। तीर्थकर की कारणभूत सोलहकारण भावनाओं में अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, श्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति भावनाओं के माध्यम से श्रुताराधना के लिए ही प्रेरित किया गया है। क्योंकि श्रुताराधना से ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है। जो मोक्षपुरुषार्थ को जाग्रत कर मुमुक्षुओं को मुक्तिमार्ग की ओर अग्रसर करती है। इसी से मोक्षमार्गी मुमुक्षु मुनिराज अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी रहते हुए सदा ज्ञान-ध्यान-तप में अनुरक्त रहकर प्रशंसा पाते हैं।९ ।।
स्वाध्याय से ज्ञान होता है। ज्ञान से तत्त्वों का संग्रह अर्थात् तत्त्वों का स्पष्ट बोध होता है। तत्त्वबोध से तत्त्वश्रद्धान और सद्भावना जाग्रत होती है। जो मुनिराज पांचों प्रकार का