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"स्वाध्याय एक अनुशीलन"
प्राचार्य अभयकुमार जैन
सर्वेभ्यो यद् व्रतं मूलं स्वाध्यायः परमं तपः । यतः सर्वव्रतानां हि स्वाध्यायः मूलमादितः । ।९९ ।।
सिद्धान्तसार
स्वाध्याय ही सभी व्रतों का मूलाधार है, ध्यान का मुख्य अंग है, शुभध्यानों का हेतु भी है । इसी से स्वाध्याय को परम तप उत्तम तप कहा गया है। सत्-इ -शास्त्रों का पठन-पाठन, मनन-चिन्तन ज्ञानवर्द्धक, सुख- सन्तोषकारी होने के साथ-साथ मोक्षमार्ग प्रवर्तक और जिनशासन प्रभावक भी है। मनुष्य को यह विवेकवान, उसके जीवन को आदर्श तथा प्रगतिशील, सभ्य शिष्ट भी बनाता है। इसी से आचार्य भगवन्तों ने हम संसारियों पर दया करके जिनवचनों को चार अनुयोगों में लिपिबद्ध करके उनकी टीकाएँ/ व्याख्याएँ कर सरल सुबोध बनाया है और अनेक मनीषियों ने विभिन्न भाषाओं में रुपान्तरण करके सर्व साधारण को भी पठनीय मननीय बना दिया है। इस संशोधित संपादित प्रकाशित आगम साहित्य के पठन-पाठन प्रचार-प्रसार
आज महती आवश्यकता है ताकि हमारे श्रुततीर्थ व मोक्षमार्ग की परम्परा अटूट बनी रहे और धर्मतीर्थ भी शक्तिमान बना रहे आगमों में स्वाध्याय श्रुताभ्यास की बड़ी महिमा गायी गई है और स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन करने की सत्प्रेरणा भी दी गई है।
स्वाध्याय क्या है ? सत्-शास्त्रों के पठन-पाठन, वाचन-मनन और उपदेश आदि को समान्यतः स्वाध्याय कहा जाता है । व्युत्पत्ति अनुसार अर्थ इस प्रकार है -
(१) 'स्वस्य =आत्मनः अध्ययनं स्वाध्यायः' अपनी आत्मा का अध्ययन, चिन्तन-मनन, ध्यान स्वाध्याय है।
(२) स्वस्मै आत्मने (आत्मनः हितार्थ) अध्ययनं स्वाध्यायः' अपनी आत्मा के हितार्थ आत्महितकारी सत्-शास्त्रों का अध्ययन, मनन-चिन्तन, भावन स्वाध्याय है।
(३) 'सु+आ+अध्यायः सु समीचीन रूप से आ विधि मर्यादापूर्वक हितकारी सत्-शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, चिन्तन-मनन करना, भावना भाना, उपदेश देना स्वाध्याय है।
निश्चय से आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय है अपनी आत्मा का हित करने वाला अध्ययन स्वाध्याय है? आत्मस्वरूप को जानकर उसी में स्थिर हो जाना स्वाध्याय है। जो अपनी आत्मा को इस अपवित्र शरीर से निश्चय से भिन्न तथा ज्ञायक स्वरूप जानता है, वह सब शास्त्रों को जानता है।