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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013
हे प्रभो ! मोहनीय कर्म का नाश हो जाने से अनुभव करता हुआ भी मानव तुम्हारे गुणों को नहीं गिन सकता है। प्रलयकाल में सागर का पानी बाहर हो जाने पर भी सागर के रत्नों की राशि का अनुमान नहीं किया जा सकता है।
यहाँ पर गुणगणन की रत्नराशि की गणना के रूप में संभावना होने से उत्प्रेक्षा अलंकार
'कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम्। विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्।।४९ आपका नाम स्मरण रूपी जल प्रलय काल की तेज हवा से धधकती हुई अग्नि के समान जलती हुई निर्धूम चिनगारियों से युक्त विश्व को मानो खा जाने के लिए तैयार सामने आती हुई दावाग्नि को पूरी तरह बुझा देता है।
यहाँ पर जगत् को खा जाने रूप संभावना करने से उत्प्रेक्षा अलंकार है। इसी प्रकार दोनों स्तोत्रों में अन्य अर्थालंकार भी विद्यमान है।
इसी प्रकार कल्याणमन्दिर स्तोत्र के श्लोक संख्या २,३,४,५,६,११,१४,१५,३६ और ४३ भक्तामरस्तोत्र के श्लोक संख्या २,३,४,५६,१५,२३,२७,४३, और ४७ के साथ क्रमशः तुलनीय
___ कल्याणमंदिर और भक्तामर स्तोत्र के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह सहज निष्कर्ष निकलता है कि कोई एक स्तोत्र अपने पूर्ववर्ती स्तोत्र से प्रभावित अवश्य है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं कि - 'भक्तामरस्तोत्र के अन्तरंग परीक्षण से प्रतीत कि यह स्तोत्र कल्याणमंदिर का परवर्ती है। कल्याणमंदि में कल्पना की जैसी स्वच्छता है, वैसी प्रायः इस स्तोत्र में नहीं है। अतः कल्याणमन्दिर भक्तामर से पहले की रचना हो, तो आश्चर्य नहीं है।'५०
डॉ. नेमिचन्द्र द्वारा निर्धारित पूर्वापरता आदि प्रामाणिक है, तो यह कहना सर्वथा समीचीन है कि भक्तामर स्तोत्र पर कल्याणमन्दिर स्तोत्र का प्रभाव है। किन्तु इसके विपरीत श्री पं. अमृतलाल शास्त्री कल्याणमन्दिर पर भक्तामर स्तोत्र का प्रभाव मानते हैं। वे लिखते हैं - 'आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपने कल्याणमन्दिर स्तोत्र का अनुक्रम भक्तामर स्तोत्र के आधार पर बनाया। वसन्ततिलका छन्दा, आरम्भ में युग्म श्लोक, आत्मलघुता का प्रदर्शन, स्तोव्य के गुणों के विषय में अपने असामर्थ्य का कथन, जिननाम के स्मरण या संकीर्तन की महिमा, हरिहरादि देवों का उल्लेख, जिनेन्द्र के संस्तव या ध्यान से परमात्म पद की प्राप्ति, आठ प्रातिहार्यों का वर्णन, स्तुति का फल मोक्ष और अन्तिम पद्य में श्लिष्ट नाम कुमुदचन्द्र - इत्यादि साम्य भक्तामर स्तोत्र को देखे बिना अकस्मात् होना कथमपि संभव नहीं है।
जो कुछ भी हो, पर इतना तो निश्चित है कि दोनों स्तोत्रों में समता किसी एक पर अन्य के प्रभावजन्य है।