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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 की शोभा, यमक की मनोरमता तथा श्लेष की संयोजना सहज ही पाठकों के हृदय में अलौकिक आनन्द का संवर्धन करती है। अर्थालङ्कारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, दृष्टान्त अर्थान्तरन्यास, प्रतिवस्तूपमा समासोक्ति, अतिशयोक्ति, विषम आदि अलङ्कारों विच्छित्ति वर्णनीय विषयों की मञ्जुल अभिव्यञ्जना करने में समर्थ है। यहाँ पर कतिपय शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों का दिग्दर्शन प्रस्तुत है।
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अनुप्रास - पदलालित्य के प्रतीक अनुप्रास अलङ्कार का लक्षण करते हुए आचार्य मम्मट लिखा है 'वर्णसाम्यमनुप्रासः अर्थात् स्वरों की भिन्नता होने पर भी व्यञ्जनों की समानता को अनुप्रास कहते हैं । यथा -
‘यद्गर्जदूर्जितघनौघमदभ्रभीमभ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम् । ३४ 'कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ।
यमक - अर्थ के होने पर जहाँ भिन्न अर्थ वाले वे ही वर्ण उसी क्रम से पुनः सुनाई देते हैं वहाँ यमक अलंकार होता है। काव्यप्रकाश में कहा गया है- 'अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्रुतिः । यमकम्
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आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन! संस्तवस्ते, नामापि पाति भवतो भवतो नितान्तम्। ""
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यहाँ पर 'भवतो भवतो' में स्वरव्यंजनसमूह की उसी क्रम से पुनः आवृत्ति हुई है। दोनों पद सार्थक हैं। प्रथम पद का अर्थ है 'आपका' और द्वितीय पद का अर्थ है 'भवत्रसंसार से' । अतः यहाँ यमक अलंकार है। इसी प्रकार उत्तरार्द्ध में 'सरसः सरसोऽनिलो' में भी यमक है। श्लेष - आचार्य मम्मट ने श्लेष के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है
'वाच्यभेदेन भिन्ना यद् युगपदभाषणस्पृशः । श्लिष्यन्ति शब्दाः श्लेषोऽसौ ' ॥३८
अर्थात् अर्थ की भिन्नता के कारण भिन्न- २ शब्द जब एक साथ उच्चारण के कारण आपस में चिपक जाते हैं या एकाकार हो जाते हैं तो उसे श्लेष अलंकार कहते हैं। यथा
'जननयनकुमुदचन्द्र में कुमुदचन्द्र के दो अर्थ हैं कुमुदों के लिए चन्द्रमा तथा ग्रन्थकर्ता आचार्य कुमुदचन्द्र तथा 'ते' मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मी: " में मानतुंग के दो अर्थ हैंस्वाभिमान से समुन्त पुरुष तथा भक्तामरस्तोत्र के रचयिता आचार्य मानतुंग । उभयत्र उच्चारणसाम्य से शब्द शिलष्ट है। अतः श्लेष अलंकार है ।
उपमा - काव्य में चारुता के सन्निवेश के लिए साम्यमूलक उपमा अलंकार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अलंकार है। जहाँ उपमान और उपमेय अलग-अलग होने पर भी गुण, क्रिया के आधर पर साधर्म्य का वर्णन होता है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। उपमा अलंकार का लक्षण करते हुए आचार्य मम्मट ने लिखा है- 'साधर्म्यमुपमा भेदे