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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013
रूपसौन्दर्य वर्णन -
आराधक अपने आराध्य को जगत् में सर्वाङ्गसुन्दर एवं अनुपम मानता है। उसे जगत् के सम्पूर्ण उपमान उसके समक्ष हीन दिखाई देते हैं। आराधक आराध्य के स्वरूप का वर्णन करने में अपने को असमर्थ पाता है। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं
‘सामान्यतोऽपि तव वर्णायितुं स्वरूपमस्मादृशः कथमधीश? भवन्यधीशाः। धृष्टोऽपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवान्धो
रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः।।'- कल्याणमन्दिरस्तोत्र, ३ अर्थात् हे प्रभो ! तुम्हारे रूप का वर्णन करने में हम जैसे लोग सामान्य रूप से भी कैसे समर्थ हो सकते हैं। क्या धृष्ट उल्लू या दिवान्ध सूर्य के रूप का वर्णन कर सकता है? अर्थात् नहीं कर सकता है।
रूप सौन्दर्य वर्णन के प्रसंग में आचार्य मानतुंग जिनेन्द्र देव का वर्णन करते हुए उनके मुख की प्रभा के समक्ष चन्द्रमा की प्रभा को भी हीन मानते हैं। दीपक, सूर्य आदि सभी उपनाम उनके समक्ष फीके हैं। श्री मानतुंग आचार्य द्वारा की गई एक सुन्दर अनन्वय-योजना दृष्टव्य है -
“यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितास्त्रिभुवनैकललामभूत। तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति।" - भक्तामरस्तोत्र, १२ अर्थात् हे तीनों लोकों में एकमात्र शिरोमणि ! वीतरागता में रुचि रखने वाले जिन परमाणुओं से तुम बनाये गये हो, निश्चित ही वे परमाणु उतने ही थे। क्योंकि सम्पूर्ण
पृथिवी में तुम्हारे समान दूसरा रूप नहीं है।
भाषा - ___ काव्य की दृष्टि से कल्याणमन्दिर स्तोत्र और भक्तामरस्तोत्र दोनों ही महत्त्वपूर्ण स्तोत्र है। इनकी भाषा बड़ी प्रासादिक तथा स्वाभाविक है। कवि की उक्तियों में बड़ा चमत्कार है। कहीं-कहीं ओजगुण का बड़ा ही कमनीय प्रयोग हुआ है, जो भाषा में प्रसंगानुकूल दीप्ति उत्पन्न करने में समर्थ है। इस सन्दर्भ में दोनों का एक-एक पद्य द्रष्टव्य है -
'यद्गर्जितूर्जितधनौधमदभ्रमीवभ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम्। दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे
तेनैव तस्य जिन! दुस्तरवारिकृत्यम्।।' -कल्याणमन्दिर, ३२ (पद्यानुवाद - महा भयंकर दुस्तरवारि, वर्षा कर उपसर्ग किया,
बादल गरजा विद्युत चमका, अपना पौरुष व्यर्थ किया। फिर भी पार्श्व प्रभुवर, तेरा कुछ भी ना वह कर पाया, अपने ही हाथों से वह तो, अपने ऊपर खड़ग चलाया।।)