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________________ अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 अर्थात् हे स्वामिन् मतिहीन होने पर भी मैं असंख्य गुणों के सागर आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूँ। क्या छोटा सा बालक भी अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर अपनी बुद्धि से समुद्र की विस्तीर्णता का कथन नहीं करता? अर्थात् करता ही है। बुद्धया विनापि विबुधार्चितपादपीठ। स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोहम्। बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्।। - भक्ता, ३ अर्थात् हे देवों द्वारा अर्चित पादपीठ वाले भगवान् ! बुद्धिहीन होते हुए भी निर्लज्ज होकर मैं आपकी स्तुति करने में अपनी बुद्धि लगा रहा हूँ। जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बच्चे को छोड़कर अन्य कौन व्यक्ति पकड़ने की इच्छा करता है? अर्थात् कोई नही। स्पष्ट है कि दोनों ही आचार्यों ने अपनी लघुता के प्रदर्शन में समान पद्धति अपनाई है दोनों ही उदाहरणों में बाल मनोविज्ञान की गजब की प्रस्तुति है। भय और काम की विवेचना - जैन दर्शन के अनुसार मोहनीय कर्म रूपी बीज से राग एवं द्वेष उत्पन्न होते हैं। इसलिए ज्ञान रूपी अग्नि से मोहनीय कर्म रूपी बीज को नष्ट करने की बात जैन शास्त्रों में कही गई है। आचार्य गुणभद्र ने लिखा है - ___ 'मोहबीजाद् रतिद्वेषौ बीजान्मूलांकुराविव। तस्मान्ज्ज्ञानाग्निना दाह्यं एतेतौ निर्दिधिक्षुणा।।१४ दुःख का मूल कारण ये राग और द्वेष भाव ही हैं क्योंकि ये दोनों भाव कर्म के बीज हैं। कर्म से जन्म-मरण और जन्म-मरण से दुःख होता है। कहा भी गया है - 'रागो य दोसो वियं कम्मबीजं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति।।१५ मनोविज्ञान के अनुसार भी अनुभूतियाँ दो प्रकार की हैं-प्रीत्यात्मक और अप्रीत्यात्मक। इनको काम एवं भय रूप मनःसंवेग वाला कहा गया है। भय संसारी मानव की सबसे बड़ी कमजोरी है। भय से त्रस्त मानव भय के कारणों से संरक्षित होने का निरन्तर प्रयास करता है। अपनी रक्षा के लिए वह अपने आराध्य की शरण में जाकर अपने को सुरक्षित मानने की भावना करता है। कठिन परिस्थितियों में वह अदेव, कुदेव या स्वर्गादि देवों से भी याचना करने लगता है। किन्तु ये वास्तविक शरण नहीं है। वास्तविक शरण तो अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म ही है। यद्यपि वीतराग भगवान् स्वयं कुछ नही करते हैं किन्तु उनकी प्रार्थना से दुःखों का नाश अवश्य होता है। पापकर्म भी पुण्य रूप में संक्रमित हो जाता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे मार्गान्तीकरण (Redirection) कहते हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए उनसे महान् भयानक दुःख रूपी सागर से पार करने की प्रार्थना करते हैं -
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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