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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 किन्तु सुखप्राप्ति के उपाय के विषय में विषमता दृष्टिगोचर होती है। जहाँ जड़वादी भौतिक सामग्री को सुख का कारण मानते हैं, वहाँ अध्यात्मवादी एवं कतिपय मनोवैज्ञानिक इच्छाओं के शमन या अभाव को वास्तविक सुख स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने सुखप्राप्ति का एक सूत्र बताया है
Achievement (लाभ)
Expectation (आशा) = Satisfaction (संतुष्टि) अर्थात् लाभ अधिक हो - आशा कम हो तो सुख प्राप्ति होती है और आशा अधिक हो लाभ कम हो तो दुःख मिलता है। इस सूत्र का सार यह है कि मनुष्य को आशायें कम करके सुख प्राप्त करना चाहिए। जब आशायें शून्य हो जाती हैं, तब परमानन्द की प्राप्ति होती है। भारतीय मनीषियों ने आशाओं की न्यूनता या शून्यता का प्रमुख कारण स्तुति (भक्ति) एवं विरक्ति को माना है। यतः कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र के रचयिता दोनों दिगम्बराचार्य हैं तथा उनके पद्यानुवादक श्री सौरभसागर जी महाराज दिगम्बर मुनि हैं, अतः उनकी कृतियों में गुणानुवाद का मूल उद्देश्य सर्वत्र समाहित दृष्टिगोचरर होता है। गुणानुवाद के उद्देश्य का कथन करते हुए कल्याणमन्दिर स्तोत्र में कहा गया है कि हे जिनेन्द्र! जो मनीषी अभिन्न बुद्धि से आपको ध्यान करते हैं वे आपके प्रभाव से आपके समान ही बन जाते हैं -
'आत्मा मनीषिभिरयं त्वभेदबुद्ध्या
ध्यातो जिनेन्द्र ! भवतीह भवत्प्रभावः।'६ भक्तामरस्तोत्र में इस बात को शब्दान्तर में इस प्रकार कहा गया है कि उसकी स्तुति से क्या लाभ है, जो अपने आश्रित को अपने समान नहीं बना देता है
'तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंवा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति।" प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन -
साधना या वैराग्य की वृद्धि करने में सबसे बड़ा साधन प्रतिपक्षी भावों का चिन्तन है। यदि अशुभ को त्यागना है तो शुभ का संकल्प करना आवश्यक है और शुभ को प्राप्त करना है तो अशुभ को त्यागने का चिन्तन आवश्यक है। महर्षि पातञ्जलि ने स्पष्टतया कहा है -
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्। अर्थात् एक पक्ष को तोड़ना है, तो प्रतिपक्ष की भावना पैदा करो। आचार्य कुमुदचन्द्र और आचार्य मानतुंग दोनों ही भवसन्तति, पाप एवं कर्मबन्ध के विनाश के लिए भववत् चिन्तन को आवश्यक मानते हैं। कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामरस्तोत्र के निम्नलिखित पद्य इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है। आचार्य कुमुदचन्द्र कहते हैं -
'हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः।
सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य।।'-कल्याणमन्दिर, ८