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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं भक्तामर स्तोत्र का तुलनात्मक अनुशीलन डॉ. जयकुमार जैन स्तोत्र का जैन परम्परा में अर्थ (स्तोत्रद्वय में साम्य) स्तोत्र शब्द का अदादि गण की उभयपदी ‘स्तु' धातु से 'ष्ट्रन्' प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ गुणसंकीर्तन है। स्तुति शब्द स्तोत्र का पर्यायवाची है, जो स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है, जबकि स्तोत्र शब्द नपुसंक लिङ्ग में प्रयुक्त होता है। गुणसंकीर्तन आराधक द्वारा आराध्य की भक्ति का एक माध्यम है, जो अभीष्ट सिद्धिदायक तो है ही, विशुद्ध होने पर भवनाशक भी होता है। श्री वादीभसिंह सूरि ने भक्ति को मुक्ति रूपी कन्या से पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। उनका कहना है जो शुभ भक्ति मुक्ति को प्राप्त करा सकती है, वह अन्य क्षुद्र क्या-क्या कार्य सिद्ध नहीं कर सकती है - 'श्रीपतिर्भगवान् पुष्याद् भक्तानां वा समीहितम्। यद्भक्तिःशुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे।।' 'सती भक्तिः भवति मुक्त्यै क्षुद्रं किं वा न साधयेत्। त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभः किं तुषोत्करः।। अतः स्पष्ट है कि भक्ति शिवेतरक्षति (अमंगलनाश) एवं सद्यः परनिर्वृति (त्वरित आनन्दप्राप्ति) के साथ पम्परया मुक्ति की भी साधिका है। यद्यपि स्तुति शब्द का प्रयोग प्रायः अतिप्रशंसा में होता है, किन्तु जैन परम्परा में स्तुति शब्द का प्रयोग अतिप्रशंसा में नहीं अपितु आंशिक गुणानुवाद के रूप में हुआ है। जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए श्री समन्तभद्राचार्य ने लिखा है - 'गुणस्तोकं समुल्लंघ्य तद्बहुत्वकथा स्तुतिः।। आनन्त्यास्ते गुणाः वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम्।।२ अर्थात् थोड़े गुणों को पाकर उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर कहना स्तुति कही जाती है, परन्तु हे भगवन् ! तुम्हारे तो अनन्त गुण हैं, जिनका वर्णन करना असंभव है। अतः तुम्हारे विषय में स्तुति का यह अर्थ कैसे संगत हो सकता है ? इस विषय में कल्याणमन्दिरस्तोत्र में तथा भक्तामरस्तोत्र में भी कहा गया है -
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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