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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013
यथाकाल पकना तथा दूसरा उपाय से उसे पकाना। इसे उदाहरणपूर्वक निम्न प्रकार स्पष्ट किया गया है -
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उपायपाको वरधोवीरतपप्रकारैस्सुविशुद्धमार्गेः ।
सद्यः फलंयच्छति कालपाकः कालान्तरायः स्वयमेव दद्यात् ।।
अर्थात् उत्कृष्ट घोरवीर तप आदि विशुद्ध उपायों से (कर्म का उदयकाल नहीं होते हुए भी) कर्म को उदय में लाना यह उपाय पाक कहलाता है, इससे उसी समय पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल मिल जाता है। कालान्तर में यथा समय (अपने आयुष्यावसान में) कर्म स्वयं उदय में आकर (पककर) फल देते हैं - यह काल पाक है।
'पुनः कहा गया है -
आगे
यथा तरूणां फलपाकयोगो मतिप्रगल्भैः पुरुषैर्विधेयः । तथा चिकित्साप्रविभागकाले दोषप्रपाको द्विविधः प्रसिद्धः ।।
अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष के फल स्वयं भी पकते हैं और बुद्धिमान मनुष्य उन्हें विभिन्न उपायों के द्वारा भी पकाते हैं। उसी प्रकार प्रकुपित दोष भी उपाय (चिकित्सा) और कालक्रम दोनों प्रकार से पकते हैं।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के शरीर में रोगोद्भव अशुभ कर्म के उदय से होता है। मनुष्य के द्वारा पूर्व जन्म में किए गये असत्कर्म या पाक कर्म अपना फल देने हेतु जब इस जन्म में उदय में आते हैं तब उसके परिणाम स्वरूप अन्यान्य कष्टों - दुःखों के अतिरिक्त रोगोत्पत्ति रूप कष्ट भी उसे होता है। उसका शमन या निवारण त तक सम्भव नहीं है जब तक उस अशुभ कर्म का परिपाक होकर पूर्णतः उसका क्षय या शमन नहीं हो जाता। शास्त्रों के अनुसार धर्माचरण के द्वारा अशुभ कर्म या पाप का शमन होता है, अतः पापकर्म जनित रोग का शमन धर्माचरण या धर्म सेवन से ही संभव है - यही भाव जैन धर्म में निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया गया है
सर्वात्मना धर्मपरः नरो स्यात्तमाशुसर्व समुपैति सौरव्यम् । पापोदयात्ते प्रभवन्ति रोगा धर्माच्च पापाः प्रतिपक्षभावात् ॥ नश्यन्ति सर्वे प्रतिपक्षयोगाद्विनाशमायान्तिकिमत्र चित्रम?
अर्थात् जो मनुष्य सर्व प्रकार से धर्म परायण होता है उसे शीघ्र ही सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं। पाप के उदय से विविध रोग उत्पन्न होते हैं तथा पाप और धर्म के परस्पर विरोधी भाव होने से धर्म से पाप का नाश होता है प्रतिपक्ष की प्रबलता होने से यदि रोग समूह विनाश को प्राप्त होते हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
धर्म के प्रभाव से पाप रूप रोग का जो नाश होता है उसमें धर्म तो वस्तुतः आभ्यन्तर कारण होता है और बाह्यकारण के रूप में प्रयुक्त औषधोपाचार को ही चिकित्सा कहा है जबकि आभ्यन्तर कारण के रूप में सेवित धर्म को धर्माचरण ही माना जाता है, किन्तु चिकित्सा के अन्तर्गत धर्म का भी उल्लेख होने से उसे सात्विक चिकित्सा के रूप में स्वीकार किया गया है। रोगोपशमनार्थ बाह्य और आभ्यन्तर चिकित्सा के रूप में धर्म आदि की कारणता निम्न प्रकार से बतलाई गई है -