________________
अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 इसलिए वैद्य के लिए उचित है कि उसे काम और मोह के वशीभूत होकर अर्थ (धन) के लोभ से, मित्र के प्रति अनुराग भाव से, शत्रु के प्रति शेष भाव से, बंधु बुद्धि से तथा इसी प्रकार से अन्य मनोविकार भाव से प्रेरित होकर अथवा अपने सत्कार के निमित्त या अपने यश अर्जन के लिए चिकित्सा नहीं करना चाहिये। विद्वान् वैद्य कारूण्य बुद्धि (रोगियों के प्रति करूणा एवं दया भाव) से परलोक साधन के लिए तथा अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय करने के लिए चिकित्सा कार्य करें। __ भगवान जिनेन्द्र देव के शासन में ऐसी क्रिया विधि भी उपादेय मानी गई है जो कर्म क्षय करने में साधनभूत हो। यद्यपि अन्य शुभ कर्म भी आचरणीय बतलाए गए हैं, किन्तु उनसे मात्र शुभ कर्म का बन्ध होकर पुण्य का संचय होता है और उससे परलोक में सुख की प्राप्ति होती है किन्तु उससे पूर्व संचित कर्मों का क्षय नहीं होने से कर्मों के बन्धन से मुक्ति या मोक्ष रूप आत्म कल्याण नहीं होता है। चिकित्सा कार्य में यदि कारुण्य भाव निहित हो तो उससे कर्मक्षय होता है - ऐसा विद्वानों का अभिमत है, जैसा कि उपर्युक्त वचन से सुस्पष्ट है। __ कोई भी वैद्य अपने उच्चादर्श चिकित्साकार्य में नैपुण्य, शास्त्रीय ज्ञान की गंभीरता, मानवीय गुणों की संपन्नता, निःस्वार्थ सेवा भाव आदि विशिष्ट गुणों के कारण ही समाज में विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है। यही उसकी स्वयं की प्रतिष्ठा, उसके व्यवसाय की प्रतिष्ठा और समष्टि रूपेण देश की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक है, वैद्यत्व की सार्थकता भी वस्तुतः इसी में निहित है। जिस का वैद्यत्व व्यवसाय परोपकार की पवित्र भावना से प्रेरित न हो उसका वैद्य होना ही निरर्थक है, क्योंकि वैद्य का उच्चादर्श रोगी को भीषण व्याधि से मुक्त कराकर उसे आरोग्य लाभ प्रदान करना है। महर्षि अग्निवेश ने भी अग्निवेश तन्त्र (चरक संहिता) में इसी तथ्य का प्रतिपादन निम्नवत् किया है -
दारूणैः कृष्यमाणानां गदैर्वैस्वतक्षम्। छित्वा वैवस्वतान् पाशान् जीवितं यः प्रयच्छति।।
धर्मार्थदातासदृशस्तस्य नेहोपलभ्यते।
न हि जीवितदानाद्धि दानमन्यद्विशिष्यते।।१३ अर्थात् भयंकर रोगों के द्वारा यमपुरी की ओर बलात् ले जाते हुए प्राणियों के प्राण को जो वैद्य यमराज के पाशों को काटकर बचा लेता है उसके समान धर्म और अर्थ को देने वाला इस जगत् में कोई दूसरा नहीं पाया जाता है, क्योंकि जीवन दान से बढ़कर कोई दूसरा विशिष्ट दान नहीं है अर्थात् सभी प्रकार के दानों में जीवनदान ही सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़ा दान माना गया है।
जैन धर्म में प्राणदान को अभयदान की संज्ञा दी गई है। वैद्य के द्वारा चूंकि रोगी को प्राण दान या जीवन दान प्राप्त होता है, अतः संसार में धर्म और अर्थ को देने वाला सबसे बड़ा वैद्य ही है। जीवन दान में जहां परहित का भाव निहित है वहां वैद्य का उच्चतम आदर्श भी प्रतिबिम्बित होता है। दूसरों के प्राणों की रक्षा करना जैन धर्म का मूल है क्योंकि इसी में लोक कल्याण की भावना निहित है। इस दृष्टि से जैनधर्म और आयुर्वेद की निकटता सुस्पष्ट है। परहित की भावना से प्रेरित होने के कारण इस आयुर्वेद शास्त्र में दूसरों के प्राणों की रक्षा को विशेष महत्व दिया गया है वहां इसे आजीविका के साधन के रूप में अपनाए जाने का पूर्ण निषेध किया गया है।