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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013 द्वारा रचित सिद्धान्त रसायन कल्प, पुष्पायुर्वेद आदि, पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित रत्नाकरौषध रोग, वैद्यामृत, कल्याणकारक आदि, अमृतनन्दिन्कृत अकारादि निघण्टु, मंगराज द्वारा रचित 'खगेन्द्र मणिदर्पण, मुनि यशः कीर्तिकृत जगत्सुदरी प्रयोग माला आदि, श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित 'वेज्जगाहा' (वैद्यगाथा) इत्यादि। ___वैसे तो आयुर्वेद एवं प्राणावाय पूर्व के ग्रंथों में लगभग समान रूप से अष्टांग आयुर्वेद जैसे निदान, चिकित्सा, स्वस्थवृत्त, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र आदि का विवेचन किया गया है, किन्तु प्राणावाय पूर्व में आयुर्वेद की अपेक्षा कुछ विशेषता भी है। जैसे आयुर्वेद में शारीरिक
और मानसिक भेद से दो प्रकार का स्वास्थ्य प्रतिपादित किया गया है- शरीर को धारण करने वाले तीन दोष (वात-पित्त-कफ), सात धातुएं (रस-रक्त-मांस-मेढ-अस्थि-मज्जा और शुक्र) तथा तीन मल (स्वेद-मूत्र-पुरीष) ये समस्त भाव जब तक शरीर में समान रूप से संतुलित रहते हैं तब तक शरीर में कोई विकार या रोग उत्पन्न नहीं होता है और शरीर स्वस्थ एवं निरोग बना रहता है, यही मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य है। इसी प्रकार कोई मानसिक दोष (रज या तम) तब तक मनुष्य के मन में विकृति या रोग उत्पन्न नहीं करता तब तक वह भी मानसिक रूप से स्वस्थ या अविकृत रहता है - यह मानसिक स्वास्थ्य है।
उपर्युक्त द्विविध स्वास्थ्य यद्यपि प्राणावाय शास्त्र (जैनायुर्वेद) में भी अभीष्ट है, तथापि अध्यात्म प्रधान होने से प्राणावाय शास्त्र में स्वास्थ्य के दो भेद भिन्न प्रकार से प्रतिपादित किए गए हैं। यथा- पारमार्थिक स्वास्थ्य और व्यावहारिक स्वास्थ्य। श्री उग्रादित्याचार्य के अनुसार प्रथम पारमार्थिक स्वास्थ्य प्रधान या मुख्य है और द्वितीय व्यवहार स्वास्थ्य अप्रधान या गौण है। ऊपर आयुर्वेद के अनुसार जो शारीरिक और मानसिक भेद से दो प्रकार का स्वास्थ्य बतलाया गया है उसका समावेश प्राणावाय में प्रतिपादित व्यवहारिक स्वास्थ्य में किया गया है। यथा -
समाग्नि धातुत्वमदोष विभ्रमो मलक्रियात्मेन्द्रिय सुप्रसन्नता।
मनः प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमुक्तं व्यवहारजं खलु।। अर्थात् अग्नि (जठराग्नि), धातु (सात धातुएं) और तीनों दोष (वात-पित्त-कफ) का सम अवस्था में होना, मल (स्वेढ मूत्र, पुरीष) की विसर्जन क्रिया में विभ्रम (विषमता) नहीं होना, आत्मा, इन्दिय और मन की प्रसन्नता (निर्मलता) व्यवहारज स्वास्थ्य कहलाता है।
यह व्यावहारिक स्वास्थ्य भौतिक होता है। इसका सम्बन्ध केवल शरीर और मन से होता है। शरीर और मन की स्वस्थता एवं निरोगता इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। यह पारमार्थिक स्वास्थ्य की प्राप्ति में सहायक होता है। श्री उग्रादित्याचार्य ने पारमार्थिक स्वास्थ्य का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया है -
अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं येदेतदात्यन्तिकमद्वितीयम्।।
अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभिस्तदेतदुक्तं परमार्थनामकम्।। अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न, अद्भुत, आत्यन्तिक एवं अद्वितीय विद्वज्जनों द्वारा प्रार्थित जो अतीन्द्रिय सुख है वह परमार्थ स्वास्थ्य कहलाता है।
इस प्रकार आरोग्य या द्विविध स्वास्थ्य का प्रतिपादन मात्र आयुर्वेद शास्त्र (प्राणावाय) में किया गया है, अतः यह आध्यात्मिकता से अनुप्राणित है और इसका मुख्य उद्देश्य लोकापकार