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________________ जैन आगमों में विभिन्न मतवाद एवं उनकी उत्पत्ति के कारण ११. T.W. Rhys Davids, Buddhist India, [London, 1903], Delhi] 9th Edition, १२. Studies in the Origines of Buddhism, Pg. 317. १३. के. टी. एस. सराओ, प्राचीन भारतीय बौद्ध धर्म : उद्भव, स्वरूप एवं पतन, द कॉरपोरेट बॉडी आफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउन्डेशन ताइपेइ, ताइवान, द्वितीय संस्करण, २००५, पृ.६१ १४. दलसुख मालवणिया, जैन अध्ययन की प्रगति, जैन संस्कृति संशोधन मंडल की लघु पुस्तिकाएं खण्ड-१, जैन संस्कृति संशोधन मंडल, वाराणसी, १९५८, पृ. ६ से आगे। १५. स्थानांग, ४.६४८, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुया सुराए परिसाए अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्था। १६. बृहकल्पभाष्य, ६०३५, पाया वा दंतासिया उ धोया, वा बुद्धिहेतुं व पणीयभत्तं। तं वातिगं वा मइ सत्तेहउं सभाजयट्ठा सिचयं ब सुक्कं। ***** -जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) आचार्य वादिराज देव (ध्यान के द्वारा भ. जिनेन्द्रदेव को हृदय में विराजमान करना) घटना वि.स. ११वीं शताब्दी की है। चौलुक्य नरेश जयसिंह (प्रथम) की सभा में आपका बड़ा सम्मान था। आप एक निस्पृही आचार्य और उद्भट विद्वान थे। असाता कर्म विपाक से आपको कुष्ट रोग हो गया था। द्वेषी जनों ने राजा के कान भरते हुए कहा -“आप उस कोढ़ी मुनि की इतनी प्रशंसा क्यों करते हो? उस समय एक श्रावक राजसभा में उपस्थित था, मुनि-निंदा सहन नहीं कर सका। वह आत्म-विश्वास के साथ कहने लगा - यह झूठ है। मेरे गुरु-मुनिराज को कोई कुष्ट रोग नहीं है। यह द्वेषी जनों का मात्र प्रलाप है। राजा ने सत्यता जानने की इच्छा से कहा- “मैं आचार्य श्री के दर्शन करने जाऊँगा। श्रावक- धर्म-संकट में पड़ गया। तत्काल आ. वादिराज के समीप आकर प्रार्थना करने लगाभगवन्! मैं राजा से ऐसा बोलकर आया हूँ। जैनधर्म की प्रभावना के लिए कुछ करें ताकि मेरा कहा झूठ न हो। धर्मरक्षा के निमित्त आ. वादिराज ने ध्यानस्थ होकर “एकीभाव स्तोत्र" की रचना करते हुए निम्नांकित पद की रचना करते समय 'कुष्ट' विलीन हो गया और सुवर्ण जैसी काया हो गयी प्रागेवेह त्रिदिव- भवना देष्यता भव्य-पुण्यात्। पृथ्वी चक्र कनकमयतां, देव निन्ये त्वयेम। ध्यान द्वारं मम रुचिकरं, स्वान्तगेहं प्रविष्टः तत्किं चित्रं जिनवपुरिदं, यत्सुवर्णी करोषि।। राजा ने उनकी आभामय देह को देखकर, चुगलखोरों को दण्डित करने की राजाज्ञा दी, लेकिन क्षमाधारी मुनिराज ने राजा का भ्रम दूर कर सबको क्षमा करा दिया।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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