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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 योऽवमन्येत मूले, हेतुशास्त्रश्रयाद् द्विजः। स साधुभिबंहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः।। (मनुस्मृति, २.११) ऐसे कथन की सार्थकता नहीं रही और जो तर्क से वेदार्थ का अनुसंधान करता है, वही धर्म को जानता है, अन्य नहीं, ऐसे मत प्रमुख बन गये। फलतः आगम प्रमाण (आगम की सत्यता) का भाग्य तर्क के हाथों आ गया और 'वादे वादे जायते तत्वबोधः' यह उक्ति गूंजने लगी। यद्यपि गुरू-शिष्य के बीच होने वाला जिज्ञासा समाधान एवं तत्त्वचर्चा आदि में वाद की शुद्धता में कमी नहीं आई किन्तु जहाँ दो विरोधी मतानुयायियों में चर्चा होती, वहाँ अत्यन्त विकृत रूप धारण कर लेता था। जितने विचार उद्भूत हुए, वे सभी सम्प्रदाय रूप में अस्तित्व में नही आये, क्योंकि उन्हें लोक समर्थन का आधार नहीं मिला। जो विचार तात्विक, धार्मिक या दार्शनिक वादों के रूप में अपना अस्तित्व बनाये हुए थे, उनके सांकेतिक रूप हमें प्राप्त होते हैं। कुछ विचार, सिद्धान्त नष्ट हो गए, क्योंकि लोगों की अनास्था उन्हें अक्षुण्ण नहीं बनाये रख सकी। इस प्रकार ६०० ई.पू. में अनेक सम्प्रदाय थे, जो तत्त्वज्ञान के किसी एक पक्ष को उसका अनुसरण और प्रसरण करने में अपनी वाणी का सार्थक्य मानते थे। संदर्भ - १. (क) समवायांग, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ९०, नंदी, संस्करण-८२ (ख) सूत्रतांगनियुक्ति, १२.४ (ग) कषायपाहुड-जयधवला, गाथा-६६ (घ) गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, ८७६ २. सूत्रकृतांग, १.३.४.६२-६४ उत्तराध्ययन, ९.४ मिहिलं सुपुरजणवयं, बलमोरोहं च परियणं सव्वं। चिच्चा अभिनिक्खंत्तो, एगन्तमहिट्ठिआ भवयं। ४. महाभारत, सभापर्व, ४.१०-१३, असितो देवलः ...... द्वैपायनः ..... पराशर्यश्च.....। ५. महाभारत, सभापर्व, ७.१०. १३, पराशरः ..... ||१०, पराशर्यः......||१३ ६. महाभारत, आदिपर्व, १.१.१७१.१७४ ७. निशीथभाष्य, गाथा, ४४२० । णिग्गंथ सक्क तावस, गेरूय आजीव पंचहा समणा। ८. स्थानांग, ७.१४०, .... महावीरस्स तित्थंसि सत्त पवयणणिण्हगा पण्णत्ता तं जहा-बहुरता जीवपएसिया, अवत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया।। दीघनिकाय, ब्रह्मजालसुत्त, १.१., पृ. १४-३९ (बौद्ध भारती वाराणसी प्रकाशन) १. सस्सतवादा, २. एकच्च सस्सतवादा, ३. अनन्तानन्तवादा, ४. अमराविक्खेपवादा, ५. अधिच्चसमुप्पन्नवादा। १. उद्धमाघातनिका सजीवादा, २. उद्धमाघातनिका असञवादा, ३. उद्धमाघातनिका नेवसीनासञ्जीवादा, ४. उच्छेदवादो, ५. दिट्ठधम्मनिब्बानवादो। १०. K.C. Jain, Lord Mahavira And His Times, Motilal Banarasidass Publishers Pvt. Ltd. Delhi [1st Edition, 1974].
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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