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________________ 73 जैन आगमों में विभिन्न मतवाद एवं उनकी उत्पत्ति के कारण जिनका उल्लेख आगमों में हुआ है, महावीर के समकालीन होने की वजह से स्थान पा सके और जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि ये अन्य मतवादी महावीर से चर्चा करने आते तो ऐसे में उन मतवादों का उल्लेख होना स्वाभाविक सा लगता है। जैसे गौतम बुद्ध महावीर से उम्र में कुछ वर्ष छोटे थे और उनके मतवाद क्षणिकवाद का उल्लेख सूत्रकृतांग में हुआ। इस प्रकार समकालीन होने के कारण कभी चर्चा-वार्तालाप या मिलने के दौरान उनके सिद्धान्तों को जाना गया होगा और अपने शिष्यों को बताया गया होगा, ऐसा संभव लगता है। दूसरी बात यह थी कि बौद्धों के स्थान-स्थान पर विहार होते, जहाँ भिक्षु स्थायी रूप से रहते और अध्ययन-अध्यापन चलता था, ऐसा ही वैदिक संयासियों के साथ था जो मठों में रहते थे। किन्तु जैन साधु चातुर्मास के अलावा एक स्थान पर नहीं रहते थे। हमेशा विहार-विचरण होता रहता था, जैसा कि आज भी देखा जाता है। अतएव उनकी विद्या परंपरा स्थायी नहीं थी। ऐसी स्थिति में मार्ग में जो भी अन्य मतावलम्बी मिलता उनसे चर्चा-संवाद् चलता और जैनों की उदार दृष्टि अपने ग्रन्थों में उन्हें समादर देती किन्तु वहीं जैनेतर ग्रंथों में जैन मत की चर्चा कदाचित् ही हुई है। तीसरा कारण यह हो सकता है कि वह खण्डन प्रधान युग था। सभी स्वमत की प्रतिष्ठा करना चाहते थे तो संभव है ऐसे में जैसे कि आगमों में अन्य मतों का खण्डन हुआ है, उस आधार पर अन्य मतों का खण्डन कर स्वमत की स्थापना हेतु भी अन्य-अन्य मतों का उल्लेख हुआ। ___ वस्तुतः धर्म प्रचार के लिए वाद एक सशक्त माध्यम था। यही कारण था कि भगवान् महावीर के ऋद्धिप्राप्त शिष्यों की गणना में वाद-प्रवीण शिष्यों की पृथक् गणना हुई है। स्थानांग में भगवान् महावीर के वादी शिष्यों की संख्या ऋद्धि सौ बताई गई है, जो देव परिषद्, मनुज परिषद् तथा असुर परिषद् से अपराजेय थे। १५ ___ वाद कला में ऐसे कुशल साधुओं के लिए कठोर नियमों को भी मृदु बनाया जाता था। बृहत्कल्प भाष्य (६वीं ई.सदी) में तो यहां तक कहा गया है कि मलिन वस्त्रों का प्रभाव सभाजनों पर अच्छा नहीं पड़ता है। अतः वह साफ-सुथरे कपड़े पहनकर सभा में जाता है। रुक्षभोजन करने से बुद्धि की तीव्रता में कमी न हो इसलिए वाद करने के प्रसंग में प्रणीत अर्थात् स्निग्ध भोजन लेकर अपनी बुद्धि को सत्त्वशाली बनाने का यत्न करता है। ये सब सकारण आपवादिक प्रतिसेवना है।१६ इन ३६३ जैनेतर मतों का प्रचारित होना निःसंदेह संदिग्ध है, किन्तु कतिपय मतों का प्रचलित होना अवश्य निःसंदिग्ध है। स्थिति ऐसी बनी कि आगम की साक्षी से अपने सिद्धान्तों की सच्चाई बनाये रखना कठिन हो गया, क्योंकि अनेक मतवाद हैं, अनेक ऋषि हैं। किसको सही मानें, यह लोगों के सामने ज्वलंत प्रश्न बन गया। तब प्रायः सभी प्रमुख मतवादों ने अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए युक्ति (तर्क) का सहारा लिया। जो ब्राह्मण धर्म के मूल श्रुति और स्मृति का तर्कशास्त्र के सहारे अपमान करता है, वह नास्तिक है, ऐसे साधुजनों को समाज से निकाल देना चाहिए
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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