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________________ विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता जैन साहित्य के संदर्भ में - डॉ. सागरमल जैन भारतीय इतिहास में अवन्तिकाधिपति विक्रमादित्य का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। मात्र यही नहीं, उनके नाम पर प्रचलित विक्रम संवत् का प्रचलन भी लगभग संपूर्ण देश में है। लोकानुभूतियों में भी उनका इतिवृत बहु चर्चित है। परवर्ती काल के शताधिक ग्रन्थों में उनका इतिवृत्त उल्लेखित है। फिर भी उनकी ऐतिहासिकता को लेकर इतिहासज्ञ आज भी किसी निर्णयात्मक स्थिति में नहीं पहुंच पा रहे हैं। इसके कुछ कारण हैं- प्रथम तो यह कि विक्रमादित्य विरुद के धारक अनेक राजा हुए हैं अतः उनमें से कौन विक्रम संवत् का प्रवर्तक है, यह निर्णय करना कठिन है, क्योंकि वे सभी ईसा की चौथी शताब्दि के या उसके भी परवर्ती हैं। दूसरे विक्रमादित्य मात्र उनका एक विरुद है, वास्तविक नाम नहीं है। दूसरे विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य का कोई भी अभिलेखीय साध्य ९वीं शती से पूर्व का नहीं है। विक्रम संवत् के स्पष्ट उल्लेख पूर्वक जो अभिलेखीय साध्य है वह ई. सन् ९४१ (विक्रम संवत् ८९८) का है। उसके पूर्व के अभिलेखों में यह कृत संवत् या मालव संवत् के नाम से ही उल्लेखित है। तीसरे विक्रमादित्य के जो नवरत्न माने जाते हैं, वे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विभिन्न कालों के व्यक्ति हैं। ____ विक्रमादित्य के नाम का उल्लेख करने वाली हाल की गाथा सप्तशती की एक गाथा को छोड़कर कोई भी साहित्यिक साक्ष्य नवीं-दशवीं शती के पूर्व का नहीं है। विक्रमादित्य के जीवनवृत्त का उल्लेख करने वाले शताधिक ग्रन्थ हैं, जिनमें पचास से अधिक कृतियों तो जैनाचार्यों द्वारा रचित हैं। उनमें कुछ ग्रंथों को छोड़कर लगभग सभी बारहवीं-तेरहवीं शती के या उससे भी परवर्ती काल के हैं। यही कारण है कि इतिहासज्ञ उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में संदिग्ध हैं। किन्तु जैन स्रोतों से इस सम्बन्ध में विक्रमादित्य की जो सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनकी विश्वनीयता को पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता है। यह सत्य है कि जैनागमों में विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है। जैन साहित्य में विक्रम संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य का सम्बन्ध दो कथानकों से जोड़ा जाता है। प्रथम तो कालकाचार्य की कथा से और दूसरा सिद्धसेन दिवाकर के कथानक से। इसके अतिरिक्त कुछ पट्टावलियों में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है। उनमें यह बताया गया है कि महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ और यह मान्यता आज बहुजन सम्मत भी है। यद्यपि कहीं ४६६ वर्ष और ४५ दिन पश्चात् विक्रम संवत् का प्रवर्तन माना गया है। तिलोयपण्णत्ति को जो प्राचीनतम (लगभग-पांचवीं-छठी शती) उल्लेख है, उसमें वीर निर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् शक राजा हुआ- ऐसा जो उल्लेख है उसके आधार
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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