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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 आज्ञा का पालन करता है, वह सभी प्रकार की विद्याओं को प्राप्त कर लेता है। क्षत्रचूडामणि में आया है कि "जिस प्रकार बहुमूल्य रत्न से भूसे का ढेर खरीदना साधारण सी बात है, उसी प्रकार निष्कपट भाव से विहित गुरु भक्ति से भी जब परम्परया मुक्ति तक प्राप्त हो सकती है, तो अन्य लौकिक कार्यो की पूर्ति होना तो तुच्छ बात है। गुरु के साथ द्रोह करना शिष्य के लिए अनुचित है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि शिष्य में गुरुसेवा, विनय, ब्रह्मचर्य, एकाग्रता, निरलसता एवं परिश्रम इन गुणों का होना परमावश्यक है। जिस प्रकार शिष्य में गुणों का होना आवश्यक है, उसी प्रकार गुरु में भी वैदुष्य, सहानुभूति आदि गुणों का होना आवश्यक है। क्षत्रचूडामणि में गुरु का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि - “जो रत्नत्रयधारक, श्रद्धावान, ज्ञानी, चरित्रवान, सज्जन, पात्रप्रेमी, परोपकारी, धर्मरक्षक और जगत्तारक होता है वही यथार्थ गुरु होता है। किन्तु जिसमें उक्त गुण नहीं होते वह यथार्थ गुरु कहलाने का अधिकारी नहीं होता। गुरु को विषय का पण्डित होने के साथ-साथ चरित्रगुण से विभूषित माना गया है। जिसका चरित्र स्वच्छ नहीं, वह शिक्षा क्या देगा? ज्ञानी होने के साथ चरित्रनिष्ठ होना भी गुरु के लिये अनिवार्य है। संस्कृत जैन काव्यों के गुरु निर्लोभी, निःस्वार्थी और कर्त्तव्यपरायण परिलक्षित होते हैं। शान्तिनाथ चरित में आया है कि समस्त शास्त्र आगम पुराण और इतिहास आदि की जानकारी गुरु के लिए जरूरी है। गुरु के विषय में कहा गया अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं। तत्पदं दर्शित येन, तस्मै श्री गुरवे नमः।। प्राचीन परम्परा के अनुसार जब शिष्य की शिक्षा संपन्न हो जाती थी तो वह गुरु को गुरु दक्षिणा देता था। विद्वान् कोत्स ने भी शिक्षा संपन्न होने पर अपने गुरु वरतन्तु को गुरु दक्षिणा देने के लिये राजा रघु से १४ करोड़ स्वर्ण मुद्रायें माँगी थी। इसी प्रकार क्षत्रचूडामणि के नायक जीवन्धर से आर्यनन्दी गुरु ने - हे वत्स! एक वर्ष तक युद्ध नहीं करो,यही गुरु दक्षिणा है। जीवन्धर ने गुरु दक्षिणा की शर्त के अनुसार एक वर्ष तक काष्ठांगार से युद्ध नहीं किया। जैनदर्शन और शिक्षण विधि - भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिये जैन आगमों में इन्द्रियानुभव, प्रयोग, श्रुति और स्वाध्याय विधियों का उल्लेख मिलता है। इन्द्रियों द्वारा अनुभव करके, ज्ञान प्राप्त करना इन्द्रियानुभव कहलाता है। इसे आज की भाषा में प्रत्यक्ष विधि कहते हैं। प्रयोग विधि में स्वयं करके सीखा जाता है। यह विधि कला की शिक्षा के लिये उपयुक्त विधि होती है। श्रुति विधि में गुरु से सुनकर ज्ञान प्राप्त किया जाता है। आज की स्थिति में गुरु के साथ-साथ रेडियो व टेलीविजन द्वारा भी सुना और सीखा जाता है। स्वाध्याय विधि में पाठ्य-सामग्री से सम्बन्धित ग्रन्थों का अध्ययन करके सीखा जाता है। स्वाध्याय जैन ग्रन्थों में पांच पद बताये गये हैं, वाचना (पाठ्य साहित्य का पठन पाठन), पृच्छना (जो कुछ पढ़ा है और समझा है उस पर गुरु से प्रश्न पूछकर शंकाओं का समाधान करना), परिग्रहण (पठित की आवृत्ति करना), अनुप्रेक्षा (पठित वस्तु पर पुनः चिन्तन और मनन करना) एवम् धर्मकथा (इस प्रकार प्राप्त ज्ञान की अन्यान्य अधिकारी व्यक्तियों से चर्चा करना)। आध्यात्मिक ज्ञान
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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