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________________ जैनधर्म में शिक्षा व्यवस्था स्थित आश्रम में द्विजों को वेदाध्ययन में संलग्न वर्णित किया गया है। यहां तक कि वहां पर रहने वाले शुकशारिका भी वेदाध्ययन के पश्चात् उसका कर्ण रसायन अनुवाद करते थे।१५ राजनीति में चार प्रकार की राज विद्याओं- साम, दाम, दण्ड और भेद का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्र-चूड़ामणि में, हवन सामग्री को जूठा करने के कारण ब्राह्मणों द्वारा अधमरे किये कुत्ते का प्रसंग तथा पार्श्वनाथ चरित में आश्रम में होम आदि के होने के वर्णन से कहा जा सकता है कि कर्मकाण्ड की भी शिक्षा उस समय दी जाती थी। जैन शास्त्रों का अध्ययन भी छात्रों को कराया जाता था। जीवन्धर को उनके गुरु आर्यनन्दी ने इसी तरह की लोकपाल नामक राजा की कथा सुनाई थी।६ गृहस्थ-धर्म की शिक्षा का उल्लेख जैन साहित्य में आया है। गान विद्या का वर्णन भी आया है। शिक्षा में सभी प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन कराया जाता था। शिष्य के गुण एवं विद्यारम्भ - प्राचीन काल से ही, शिक्षा किसे दी जाये? इसका वर्णन अनेक काव्यों एवं पुराणों में भी हुआ है। हनुमान जी ने भी उत्तम शिष्या घृता को नृत्य की शिक्षा, उसके अनेक गुणों को जाँच कर ही दी थी। वादीभसिंह सूरि ने आदर्श शिष्य में गुरुभक्ति, संसार से भय, विनय, धर्म, कुशाग्रबुद्धि, शान्त परिणामी, आलस्यहीन और शिष्टता को आवश्यक माना है। योग्य शिष्य को शिक्षा देना ही सफल माना गया है। अतः शिक्षा तत्त्वों में शिष्यों की योग्यताओं का विवेचन भी आवश्यक है। कुपात्र को शिक्षा देने का कितना ही प्रयास क्यों न किया जाये, वह सब निष्फल है। बुद्धि-पूर्वक अगणित प्रयत्न करने पर भी जिस प्रकार बालुका कणों से तेल निकलना कठिन है, उसी प्रकार अयोग्य शिष्य को शिक्षा देना व्यर्थ है। क्षयोपशमजन्य प्रतिभा के साथ अध्यवसाय भी आवश्यक है। प्रतिभा संपन्न छात्र भी आलस्य और विलासिता में छूबा रहेगा तो वह कदापि विद्वान् नहीं बन सकता। पार्श्वनाथ चरित्र में कुमार रश्मिवेग में विनय, नम्रता, गुरु से अनुराग, चंचलता का राहित्य आदि गुणों का चित्रण किया गया है।" विद्यारम्भ से तात्पर्य वर्णमाला के ज्ञान और विद्याध्ययन से तात्पर्य वर्णमाला के ज्ञान के बाद होने वाले अध्ययन से है। लिपि और वर्णमाला के ज्ञान के बाद ही विद्याध्ययन आरम्भ होता है। कुमार रश्मिवेग का वर्णन करते हुए पार्श्वनाथ चरित में कहा गया है कि उसके समान उम्र वाले बालकों के साथ विनयपूर्वक गुरु के द्वारा पढ़ाई विद्याओं को अलग-अलग शीघ्र ही सीख लिया था क्योंकि गुण भव्य-पुरुष के आगे-आगे स्वयं चलते गुरु शिष्य सम्बन्ध - इतिहास इसका साक्षी है कि भारत में गुरुशिष्य-सम्बन्धों की लम्बी श्रृंखला है। ऋषि विश्वामित्र के शिष्य राम, सन्दीपन गुरु के शिष्य कृष्ण-सुदामा, द्रोणाचार्य अर्जुन, वरतन्तु कोत्स आदि उत्तम संबन्धों के उदाहरण हैं। जैनदर्शन शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों में सेवाभाव का पक्षधर है। उसकी दृष्टि से दानों को एक दूसरे के हितार्थ सदैव तत्पर रहना चाहिए। जैनाचार्य शिष्य से यह अपेक्षा करते हैं कि शिक्षक के क्रोधित होने पर वे सहन करें। उनकी सेवा करें, उनके आदर्शों का पालन करें। गुरुभक्ति को विद्यार्जन में आवश्यक कारण माना गया है। जो शिष्य अपने गुरु की सेवा शुश्रुषा, विनय, भक्ति और
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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