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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 62 प्रायः ऋषि कुमार ही अध्ययन करते थे। दूसरे प्रकार की वे शिक्षा संस्थाएं थीं जो पाठशाला के रूप में चलती थी जिनमें एक से अधिक अध्यापक नहीं होते थे । प्रत्येक पाठशाला में एक ही अध्यापक रहता था। वह सामान्य रूप से लिपिज्ञान गणित एवं भाषा आदि का बोध कराता था। तीसरे प्रकार की वे शिक्षा संस्थायें थीं जिनका स्वरूप आजकल के महाविद्यालयों के समान था। जिनमें प्रत्येक विषय के लिये पृथक्-पृथक् अध्यापक रहते थे। शान्तिनाथ चरित में वर्णित कपिल जिस सत्यकिके विद्यालय में पहुंचा था, उसमें कई अध्यापक थे और वहाँ अनेक विषयों का अध्यापन होता था। पार्श्वनाथ चरित में राजकुमारों की शिक्षा के संबन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं है कि उनकी शिक्षा कहां होती थी किन्तु क्षत्र चूडामणि के अध्ययन से पता चलता है कि राजा महाराजाओं के बालक अपने यहाँ ही गुणी शिक्षक को रखकर अध्ययन करते थे। हेमाभा नगरी के दृढमित्र राजा के पुत्र सुमित्र आदि ने जीवन्धर को धनुर्विद्या के लिये शिक्षक था । दृढमित्र राजा ने जीवन्धर कुमार से राजकुमारों को विद्या पढ़वा के लिये विनयपूर्वक प्रार्थना की थी। घर पर शिक्षक को रखकर शिक्षा दिलाना एक चतुर्थ शिक्षा संस्था के समान था । यह कुछ ही दिनों तक रहती थी। जैन धर्म में पुरुष शिक्षा के साथ-साथ नारी शिक्षा का भी उल्लेख मिलता है। क्षत्रचडामणि में आया है कि गुणमाला ने जीवन्धर के पास प्रेमपत्र भेजा था तथा प्रत्युत्तर में जीवन्धर ने भी प्रेमपत्र लिखा था जिसे पढ़कर वह बहुत प्रसन्न हुई थी । १ पाठ्यक्रम - जैनदर्शन में शिक्षा के जो उद्देश्य निश्चित किये गये हैं उन्हें दो वर्गों में बांटा जा सकता है व्यावहारिक और आत्मज्ञान सम्बन्धी उद्देश्य व्यावहारिक जीवन के लिए पाठ्यचर्या निर्माण के पांच सिद्धान्तों का उल्लेख "व्यवहार सूत्र” में मिलता है - छात्र की परिपक्वता, छात्र की क्षमता, छात्र की आयु क्रमागतता एवं उपयोगिता का सिद्धान्त और आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति के लिए जैन दर्शन, रत्नत्रय और सज्जीवन पर बल देता है। इस आधार पर जैन दर्शन ने भौतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भाषा व्याकरण, गणित, भौतिक विज्ञान, स्थिति-विज्ञान, गति-विज्ञान, शून्य विज्ञान, यांत्रिकी और विभिन्न कलाओं का समावेश किया है। जैन आगमों में ७२ कलाओं का वर्णन है, इनमें से छात्र अपनी क्षमता के अनुसार दक्ष हो सकता है। आध्यात्मिक विकास के लिये तीर्थंकरों के उपदेश एवं जैन आगमों के अध्ययन एवं सज्जीवन पर बल दिया है। सज्जीवन तो सभी के लिए आवश्यक है। अतः आचरण की शिक्षा पाठ्यचर्या का अनिवार्य अंग रहा है। आचरण की शिक्षा में रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र और पांच महाव्रत अर्थात् सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। प्राप्त संकेतों के अनसुार शिक्षा दो भागों में विभक्त थी - शास्त्र शिक्षा और शस्त्र शिक्षा । राजकुमारों के लिये शस्त्र शिक्षा भी अनिवार्य थी। पाठ्य विषयों के अंतर्गत व्याकरण, वेद, राजनीति, जैनागम, धर्मशास्त्र आदि का वर्णन पार्श्वनाथ चरित्र में आया है। सभी शास्त्रों के अध्ययन में व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है । अतएव छात्र को सर्वप्रथम व्याकरण की शिक्षा दी जाती थी। क्षत्रचूड़ामणि में व्याकरण वेद, राजनीति, धनुर्विद्या, मन्त्रतन्त्र विद्या, जैनागम, गानविद्या, ज्योतिष, कर्मकाण्ड आदि की शिक्षा का उल्लेख मिलता है।" द्विज वेदाध्ययन करते थे। भूताचल पर
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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