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________________ 65 जैनधर्म में शिक्षा व्यवस्था प्राप्त करने के लिए श्रुति, स्वाध्याय और तपस्या विधियों का उल्लेख मिलता है। श्रुति और स्वाध्याय विधियों से द्रव्य (जीव, अजीव और काल) का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है परन्तु जीव को कर्मशून्यकर उसके वास्तविक स्वरूप को देखने के लिए तपस्या की आवश्यकता होती है। तपस्या करने वाले को पांच महाव्रतों का कठोरता से पालन करना होता है और चार कषाओं को पूर्ण रूप से त्यागना होता है।" जैनदर्शन और अनुशासन - जैन दर्शन में शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के लिए अत्यन्त कठोर अनुशासन का प्रावधान है। महावीर स्वामी ने अनुशासन में तप और संयम को बढ़ा महत्त्व दिया है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसे एकरूपक द्वारा समझाया गया है, जो इस प्रकार है - “तपस्या को अग्नि बनाओ, आत्मा को यज्ञस्थल, योग की कुलछी लो, कर्म को ईंधन बनाओ, संयम रूपी शान्ति का पाठ करो और इस प्रकार प्रशस्त होम करो। ९ कैवल्यज्ञान के इच्छुक के लिए तो पांच महाव्रतों के पालन और चार कषायों के त्याग का कठोरता से पालन करना आवश्यक है। इसी को जैनधर्म में सच्चा अनुशासन कहा गया है। किन्तु इस अनुशासन को आत्मानुशासन कहा जाता है। जैन-धर्म आचार्य के पद पर उन्हीं व्यक्तियों को नियुक्त करने का आदेश देता है जो स्वेच्छा से महाव्रती हो । आचार्यों से प्रभावित होकर उपाध्याय वैसा आचरण करेंगे और इन दोनों महाव्रतियों से प्रभावित हो तो श्रावक और श्रमण भी वैसा ही आचरण करेंगे। जैन दर्शन यह व्यवस्था देता है कि किसी शिक्षार्थी से आचरण सम्बन्धी कोई भूल हो जाए तो वह उसे अपने आचार्य के सम्मुख स्वीकार करेगा और आचार्य उसे प्रायश्चित व्यवस्था देगा परन्तु यह प्रायश्चित (दण्ड) किसी भी स्थिति में अति कठोर नहीं होगा। दीक्षा - व्रतों का धारण करना दीक्षा है। अर्थात् व्रत ग्रहण करन े के लिए उन्मुख हुए पुरुष की प्रवृत्ति दीक्षा कही जाती है। क्षत्र चूडामणि में दीक्षा लेने का वर्णन आया है। लोकपाल राजा ने मेघावलोकन से विरक्त होकर राज्य पुत्र को सौंपकर दिगम्बर जैन मुनि दीक्षा धारण की थी । क्षत्रचूडामणि के एकादश लम्ब के १७वें तथा १८वें श्लोक में भी दीक्षा का उल्लेख है। इससे यही प्रतीत होता है कि उस समय आज की ही तरह संसार से वैराग्य होने पर जैन धर्मावलम्बी दीक्षा ग्रहण करते थे। विद्या की महिमा शास्त्रों में वर्णित है। जिसकी महत्ता कवि भर्तृहरि ने इस प्रकार बतायी है। "विद्या मनुष्य का अधिक रूप है, ढका हुआ गुप्त धन है। विद्या भोगों को देने वाली और यश तथा सुख को उत्पन्न करने वाली है। विद्या गुरुओं की गुरु है। विदेश जाने में विद्या आत्मीय जन है। विद्या परम देवता है। विद्या राजाओं में पूजित है, न कि धन । विद्या से रहित मनुष्य पशु है । कवि वादीभसिंह ने भी गुरु आर्यनन्दी के द्वारा विद्या की महत्ता वर्णित की है। गुरु आर्यनन्दी जीवन्धर को विद्या का महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि- “विद्या- धन का प्रभाव अचिन्त्य है। व्यय करने पर इसकी वृद्धि होती है, चोर तथा बन्धु आदि द्वारा यह छीनी भी नहीं जा सकती है और इच्छापूर्ति में भी यह रामबाण के समान है। विद्वत्ता से मनुष्य को कुलीनता, धन-संपत्ति, मान्यता आदि ही नहीं प्राप्त होते अपितु जगह-जगह आदर भी प्राप्त होता है। विद्वत्ता प्राणियों के जीवन पर्यन्त प्रशंसनीय होती है। जिस प्रकार दूध पौष्टिक होने के साथ औषधि स्वरूप भी है, उसी प्रकार विद्वत्ता भी लौकिक प्रयोजन साधक होती हुई मोक्ष का
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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