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________________ जैन संस्कृत आध्यात्मिक टीकाकार : एक सर्वेक्षण २-२१ और पञ्चास्तिकाय २३, परमात्मप्रकाश २-३३ और पंचास्तिकाय १५२ तथा परमात्मप्रकाश २-३६ और पञ्चास्तिकाय- १४६ की टीकाओं को परस्पर मिलाना चाहिए। डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने ब्रह्मदेव का समय १३वीं शताब्दी ई. के लगभग रखा है। परमात्मप्रकाश टीका सरल और विशद है। ग्रंथकार के हार्द को अभिव्यक्त करने में यह पूरी तरह समर्थ है। यह टीका द्रव्यसंग्रह की टीका के समान जैनसिद्धान्त की पारिभाषिक व्याख्याओं से भरी नहीं है। उनका उद्देश्य विषय की व्याख्या करना है। विभिन्न प्रकार के नयों के प्रयोग से वे परिचित हैं। उनका उत्साह निश्चय या आत्मिक ज्ञान की ओर अधिक है। मलधारि बालचन्द्र की परमात्म प्रकाश की कन्नड टीका प्राप्त है। ब्रह्मदेव टीका का सहारा लेते हुए इसकी रचना की गई है। बालचन्द्र का काल १४वीं शताब्दी ई. का मध्य रखा जा सकता है। प्रभाचन्द्र - आचार्य पूज्यपाद कृत समाधितंत्र पर प्रभाचन्द्राचार्य रचित संस्कृत टीका प्राप्त होती है। यह टीका श्लोकों के शब्दार्थ को ही सरल रूप में समझाती है। इनकी सरल और सीधी सादी भाषा देखकर सहज ही यह ज्ञान होता है कि यह टीका प्रमेयकमल मार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता सुप्रसिद्ध प्रभाचन्द्राचार्य से भिन्न किसी अन्य प्रभाचन्द्राचार्य की हैं, क्योंकि प्रभाचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं। सुप्रसिद्ध दार्शनिक प्रभाचन्द्र की भाषा प्रौढ़ है। यह टीका उस कोटि की नहीं है। उपर्युक्त प्रभाचन्द्र की रत्नकरण्ड श्रावकाचार और आत्मानुशासन पर भी टीकायें उपलब्ध हैं। पं. आशाधर जी -पण्डित प्रवर आशाधर जी ने आचार्य पूज्यपाद के इष्टोपदेश पर संक्षिप्त टीका लिखी है। यह संक्षिप्त होते हुए भी हार्द को स्पष्ट करती है। उदाहरणार्थ इष्टोपदेश में कहा है- न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोहं न युवैतानि पुद्गले।।२९ अर्थात् मेरी मौत नहीं है, इस कारण मुझे किससे भय है? मेरे कोई राग नहीं है इसलिए कहाँ से मुझे पीड़ा-दुःख है। मैं बालक नहीं हूँ, मैं वृद्ध नहीं हूँ, मैं जवान नहीं हूँ। ये सब बातें पौद्गलिक शरीर में होती हैं। इसकी टीका में आशाधर जी ने कहा है निश्चितात्मस्वरूप की मृत्यु-प्राणत्याग नहीं है। चित शक्ति लक्षण भावप्राणों का कभी भी त्याग नहीं होता, अतः मेरा मरण नहीं है। काले सर्प आदि मरण के कारणों से मैं क्यों डरूँ ? वातादि का सम्बन्ध मूर्त से है अतः वातादि व्याधि दोष भी मेरे नहीं है। ज्वरादि विकार भी मेरे कैसे हो सकते हैं? मेरी बालादि अवस्थाएं भी नहीं है अतः बालादि अवस्थाओं से उत्पन्न दुःखों से मैं कैसे अभिभूत हो सकता हूँ! ये मृत्यु, व्याधि, बालादि अवस्थायें मूर्त देहादि में ही संभव हैं। अमूर्त मुझमें ये असंभव है। चिरकाल के अभेद संस्कार वश ये पश्चातापकारी हैं। आत्मा में ये त्यक्त हैं तो मुझे ये दुःख देने वाली कैसे हो सकती हैं? इसी प्रकार प्रत्येक श्लोक का तात्पर्यार्थ पण्डित प्रवर आशाधर जी ने अच्छी तरह अभिव्यञ्जित किया है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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