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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 52 कमलकीर्ति - भट्टारक कमलकीर्ति की आचार्य देवसेन के तत्त्वसार पर संस्कृत टीका उपलब्ध है। जिस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने पूर्वगत अनेक प्राभृतों का सार खींचकर समयप्राभृत या समयसार, प्रवचनसार, नियमसार और अनेक प्रामृतों की रचना की है, उसी प्रकार आचार्य देवसेन ने अपने समय में उपलब्ध भगवती आराधना का सार खींचकर आराधनासार की तथा समयसार, परमात्मप्रकाश और योगविषयक समाधितंत्र, इष्टोपदेश आदि अनेक ग्रंथों का सार लेकर तत्त्वसार की रचना की। तत्त्वसार प्राकृत गाथामय है। देवसेन विक्रम संवत् की दशवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए। इसके टीकाकार ने अन्त में जो प्रशस्ति दी है, उससे सिद्ध है कि काष्ठासंघ, माथुर गच्छ और पुष्करगण के भट्टारक क्षेमकीर्ति के प्रशिष्य और हेमकीर्ति के शिष्य श्री कमलकीर्ति ने इस टीका को रचा है। कमलकीर्ति का समय विक्रम संवत् १४१० के आसपास माना जा सकता है। कमलकीर्ति की शिष्य परम्परा का उल्लेख विक्रम संवत् १५२५ में उत्कीर्ण ग्वालियर के मूर्तिलेख में पाया जाता है। उसके अनुसार कमलकीर्ति के पट्ट पर सोनागिर में भट्टारक शुभचन्द्र प्रतिष्ठित हुए। इसका उल्लेख रइधू कवि ने अपने हरिवंशपुराण की प्रशस्ति में भी किया है। टीकाकार कमलकीर्ति ने प्रत्येक भाषा की उत्थानिका में तत्त्वसार के रचयिता देवसेन को परमाराध्य, परमपूज्य भट्टारक विशेषण के साथ कहीं भगवान् पद के साथ कहीं देवसेनदेव कहकर और कहीं सूत्रकार कहकर अतिपरमपूज्य विशेषणों के द्वारा उनके नाम का उल्लेख किया है। प्रत्येक पर्व के प्रारंभ में टीकाकार कमलकीर्ति ने अमरसिंह को सम्बोधन करने वाला एक एक आशीर्वादात्मक पद्य दिया है तथा ग्रंथ के अंत में उन्हीं को संबोधित करके कहा है कि हे संसारभीरू अमरसिंह प्रसिद्ध अष्ट गुणों से युक्त सिद्ध भगवन्त तुझे सिद्धि प्रदाता हों। प्रत्येक पर्व की अंतिम प्रशस्ति का निर्माण एक ही प्रकार की पदावली में करके अपनी टीका को अति निकट भव्यजनों को आनन्दकारक, कायस्थ माथुरान्वय शिरोमणिभूत भव्यवर पुण्डरीक अमरसिंह के मानस कमल को विकसित करने के लिए दिनकर के समान भट्टारक श्री कमलकीर्ति देव विरचित तत्त्वसार का विस्तारावतार कहा है। प्रत्येक गाथा की खण्डान्वयी टीका की है। कमलकीर्ति को गुरुपरंपरा से अध्यात्म शास्त्रों का अच्छा ज्ञान था। वे तत्त्वसार के रहस्य के पारंगत विद्वान् थे। तत्त्वसार में कहा है परमाणुमित्तरायं जाम ण छंडेइ जोइ समणम्मि। सो कम्मेण ण मुच्चइ परमट्ठवियाणओ समणो।। तत्त्वसार-५३ जब तक योगी अपने मन में से परमाणुमात्र भी राग को नहीं छोड़ता, तब तक परमार्थ का ज्ञायक भी वह श्रमण कर्म से नहीं छूटता है। इसकी टीका में कमलकीर्ति ने कहा है- परमार्थ यह शब्द परम और अर्थ इन दो शब्दों के योग से बना है। अर्थ शब्द से जीवादि पदार्थ कहे गए हैं। ‘परा' शब्द उत्कृष्ट का वाचक है और 'मा' शब्द लक्ष्मी का वाचक है। ऐसी उत्कृष्ट लक्ष्मी जिसके पाई जावे, उसे परम कहते हैं। ऐसा परम जो अर्थ है, वह परमार्थ कहलाता है। अथवा परमार्थ नाम वस्तुस्वरूप का है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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