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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 आर्यिका ज्ञानमती आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार पर संस्कृत में सरल भाषा में एक टीका लिखी। इस टीका नाम उन्होंने स्याद्वाद चन्द्रिका रखा। नियमसार ग्रन्थ में सर्वगाथायें १८७ हैं। इसमें उन्होंने तीन महाधिकार माने हैं, जिनके नाम हैं- व्यवहार मोक्षमार्ग, निश्चय मोक्षमार्ग और मोक्ष जीव, अजीव आदि से इसमें बारह अधिकार हैं। टीका में प्रत्येक अधिकार के अंतर्गत अधिकार करने से ३७ अन्तराधिकार किये हैं। टीका लिखते हुए श्लोकवार्तिक, तिलोयपण्णति आदि ६२ ग्रंथों का आधार लेकर यथा स्थान उनके उद्धरण दिए हैं। टीका में गुणस्थान तथा नय व्यवस्था की शैली में सुन्दर वर्णन है। यहाँ तात्पर्यार्थ भी लिया है, उसमें आज हमें क्या करना चाहिए, यह ध्वनित किया है। उसका एक उदाहरण है - 50 अथवा प्रमत्ताप्रमत्तमुनीन्नमपि मोक्षमार्गो व्यवहारनयेनैव परम्परया कारणत्वात्। निश्चयनयेन तु अयोगिनां चरमसमयवर्तिरत्नत्रय परिणामो मोक्षमार्गः, साक्षात् मोक्षप्राप्तिहेतुत्वात्। भवमोक्षापेक्षया अध्यात्मभाषया वा क्षीणकषायान्त्य परिणामोऽपि चेति । तात्पर्यमेतत्-चिच्चैतन्यचमत्कारस्वरूपनिजपरमात्म तत्त्वस्य रुचिस्तस्यैव ज्ञानं तत्रैवावस्थानां चैतदभेदरत्नत्रयस्वरूपनिश्चयमोक्षमार्गमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयरूपव्यवहार मोक्षमार्ग आश्रयणीयः । तच्छक्त्यभावे देशचारित्रमवलम्बनीयं महाव्रतस्य च भावना कर्तव्या स्तोकव्रतग्रहणाभावे सम्यक्त्वं दृढीकुर्वता सता विकलचारित्रस्य भावना विधातव्या । किं च क्रममन्नते क्रम्यैव भावना भवनाशिनी भवति । अथवा छठे सातवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्त अप्रमत्त मुनियों के भी मोक्षमार्ग व्यवहारनय से ही है क्योंकि वह परंपरा से कारण है। निश्चयनय से तो अयोग केवलियों का अन्तिम समयवर्ती रत्नत्रय परिणाम ही मोक्षमार्ग है । क्योंकि वह साक्षात् अनन्तर क्षण में मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है अथवा भावमोक्ष की अपेक्षा से अध्यात्म भाषा में क्षीण कषायवर्ती मुनि का अन्तिम समयवर्ती परिणाम भी मोक्षमार्ग है। तात्पर्य यह निकला कि चित चैतन्य चमत्कार स्वरूप अपनी आत्मा ही परमतत्त्व है, उसका श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिरतारूप चारित्र यह अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है। यही निश्चय मोक्षमार्ग है। इसको उपादेय करके भेद रत्नत्रयस्वरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेना चाहिए और महाव्रती की भावना करनी चाहिए। यदि अणुव्रत भी नहीं ले सकते हैं तो सम्यक्त्व को दृढ़ करते हुए देशचारित्र की भावना करनी चाहिए। क्योंकि क्रम का उल्लघन न करते हुए ही की गई भावना भव की नाश करने वाली होती है। ब्रह्मदेव ब्रह्मदेव ने परमात्म प्रकाश तथा द्रव्यसंग्रह पर टीका लिखी। परमात्मप्रकाश कवि जोइन्दु अपभ्रंश भाषा में अध्यात्म प्रधान रचना है। पदच्छेद, उत्थानिका, प्रकरण संगत चर्चा तथा ब्रह्मदेव की टीका की अन्य बातें हमें जयसेनाचार्य की पञ्चास्तिकाय की टीका की याद दिलाती हैं। ब्रह्मदेव ने जयसेन का पूरा पूरा अनुकरण किया है। उदाहरण के लिए परमात्मप्रकाश
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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