SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 49 जैन संस्कृत आध्यात्मिक टीकाकार : एक सर्वेक्षण अधिकार के प्रारंभ का कौन सा विषय कितनी कितनी गाथाओं में है, इसका सुन्दर विवरण दिया है । वृत्ति की भाषा सरल है। उन्होंने स्वयं कहा है- इस ग्रंथ में प्रायः पदों की संधि नहीं की है, वाक्य भी भिन्न भिन्न रखे गए हैं, जिससे सरलतापूर्वक पाठक ज्ञान कर सकें। इसीलिए विवेकी पुरुषों को लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य, वाक्य समाप्ति आदि दूषण नहीं करना चाहिए। समयसार की टीका के अतिरिक्त जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति टीका तथा प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका भी लिखी है। जससेनीय टीकायें नयोल्लेखपूर्वक गुणस्थान परिपाटी से की गई पदखण्डान्वयी टीकायें हैं। पदखण्डान्वय के साथ इन्होंने विषय को स्पष्ट भी किया है। शब्दार्थ और भावार्थ के साथ इन्होंने आवश्यकतानुसार नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ भी स्पष्ट किया है। विषय को स्पष्ट करने के लिए प्रश्नोत्तर भी दिए हैं। पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण भी अच्छी तरह किया गया है । जयसेन की टीकायें अमृतचन्द्रचार्य की पूरक हैं। नयों का उल्लेख अमृतचन्द्र बहुत कम करते हैं। यदि करते भी हैं तो निश्चय व्यवहार या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक तक ही सीमित रहते हैं, पर जयसेन निश्चय-व्यवहार और द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक के भेद प्रभेदों के विस्तार में भी जाते हैं। पद्मप्रभमलधारिदेव इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार पर संस्कृत टीका लिखी। ये मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय पुस्तकगच्छ और देशीगण के आचार्य वीसन्दि के शिष्य थे । नियमसार पर लिखित संस्कृत टीका का नाम तात्पर्यवृत्ति है । इनकी यह तात्पर्यवृत्ति अमृतचन्द्र सूरि की टीका समयसार तात्पर्यवृत्ति की शैली में लिखी गई है, जिसमें गद्य, पद्य दोनों हैं। टीका में टीकाकार ने आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, पूज्यपाद, अमृतचन्द्र, सोमदेव, गुणभद्र, वादिराज, योगीन्द्रदेव, चन्द्रकीर्ति और महासेन के नाम उल्लेखनीय हैं। संवत् ११०७ का एक शिलालेख मद्रास प्रान्त के पाटशिवपुरम नामक ग्राम के दक्षिण द्वार पर मिला है, जिसमें पदमप्रभमलधारिदेव एंव उनके गुरु श्री वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती का उल्लेख है। इससे इनका समय १२वीं शताब्दी निश्चित होता है। इसमें गद्य टीका के साथ ३११ पद्य हैं। नियमसार के परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार की आरम्भिक ५ गाथाओं को टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव पंचरत्न कहते हैं। इनमें नारकादि, गुणस्थानादि, बालकादि, रागादि एवं क्रोधादिभावों का निश्चय से आत्मकर्त्ता, कारयिता, अनुमंता व कारण नहीं है- यह बताया गया है। इसके बाद एक गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि उक्त भावना से जिस मध्यस्थ भाव की उत्पत्ति होती है, उसे निश्चयचारित्र कहते हैं। इस अधिकार के संपूर्ण प्रतिपादन का सार यह है कि आत्माराधना ही वस्तुतः परमार्थप्रतिक्रमण है। नियमसार भावना प्रधान ग्रन्थ है। इसका सार यह है कि जीवादि सात तत्त्वों का समूह पर द्रव्य होने के उपादेय नहीं है। आत्मा ही उपादेय है।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy